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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
संज्वलन माया -- जैसे खिलते बांस की छाल (स्वल्पतम बक्र ) संज्वलन लोभ -- जैसे हल्दी का रंग ( तत्काल उड़ने वाला रंग )
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इनके उदयकाल में चारित्र - विकारक परमाणुओं का अस्तित्व निर्मूल
नहीं होता । यह प्रारम्भ में प्रमाद और बाद में कषाय- आसव की भूमिका है । यह वीतराग चारित्र की बाधक है । इसके अधिकारी सरांग-संयमी होते हैं ।
योगासन शैलेशी दशा ( संप्रज्ञात समाधि ) का बाधक है ।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से पाप कर्म का बन्ध होता है । आसव के प्रथम चार रूप आन्तरिक दोष हैं। उनके द्वारा पाप कर्म का सतत बन्ध होता है । योग आसव प्रवृत्त्यात्मक है । वह अशुभ और शुभ दोनों प्रकार का होता है। ये दोनों प्रवृत्तियां एक साथ नहीं होतीं 1 शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म और अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ कर्म का बन्ध होता है ।
श्राव के द्वारा शुभ-अशुभ कर्म का बन्ध उसका पुण्य-पाप के रूप में उदय, उदय से फिर श्रास्रव, उससे फिर बन्ध और उदय - यह संसार चक्र है 1 साधक तत्त्व-संवर
जितने श्रासन है उतने ही संबर हैं। आसव के पाँच विभाग किये हैं, इसलिए संबर के भी पाँच विभाग किये हैं :
(१) सम्यक्त्व (२) विरति (३) श्रप्रमाद (४) अकषाय (५) प्रयोग |
चतुर्थगुणस्थानी अविरत सम्यग् दृष्टि के मिथ्यात्व प्रसव नहीं होता । षष्ठगुणस्थानी - प्रमत्त संयति के अविरति आस्रव नहीं होता । सप्तमगुणस्थानी अप्रमत्त संगति के प्रमाद श्राखव नहीं होता । वीतराग के कषाय श्राव नहीं होता । यह नाव ( सर्व-संबर) की दशा है। इसी में शेष सब कर्मों की निर्जरा होती है । सब कर्मों की निर्जरा ही मोक्ष है ।
निर्जरा
निर्जरा का अर्थ है कर्म-क्षय और उससे होने वाली आत्म स्वरूप की उपलब्धि । निर्जरा का हेतु तप है । तप के बारह प्रकार हैं ३७ | इसलिए निर्जरा के बारह प्रकार होते हैं। जैसे संवर श्रखव का प्रतिपक्ष है वैसे ही निर्जरा बंध का प्रतिपक्ष है । खव का संबर और बन्ध की निर्जरा होती है। उससे