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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
अनन्तानुबन्धीको जैसे पत्थर की रेखा ( स्थिरतम ) | अनन्तानुबन्धी-मान जैसे पत्थर का खम्भा ( दृढ़तम ) । अनन्तानुबन्धी- माया जैसे बांस की जड़ ( वक्रतम ) । अनन्तानुबन्धी-लोभ जैसे कृमि - रेशम का ( गाढ़तम ) । इनका प्रभुत्व दर्शन-मोह के परमाणुओं के साथ जुड़ा हुआ है। इनके उदयकाल में सम्यक दृष्टि प्राप्त नहीं होती। यह मिथ्यात्व सब की भूमिका है । यह सम्यक् दृष्टि की बाधक है। इसके अधिकारी मिथ्या दृष्टि और सन्दिग्ध दृष्टि है । यहाँ देह से भिन्न श्रात्मा की प्रतीति नहीं होती। इसे
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पार करने वाला सम्यक दृष्टि होता है ।
अप्रत्याख्यान - क्रोध- जैसे मिट्टी की रेखा ( स्थिरतर ) । अप्रत्याख्यान - मान - जैसे हाड़ का खम्भा ( दृढ़तर ) | श्रप्रत्याख्यान- माया— जैसे मेढ़े का सींग ( वक्रतर ) ।
प्रत्याख्यान -लोभ - जैसे कीचड़ का रंग ( गाढ़तर )
इनके उदय काल में चारित्र को विकृत करने वाले परमाणुओं का प्रवेशनिरोध (संबर ) नहीं होता, यह व्रत - श्राव की भूमिका है । यह अणुव्रती जीवन की वाधक है। इसके अधिकारी सम्यक दृष्टि हैं । यहाँ देह से भिन्न वात्मा की प्रतीति होती है। इसे पार करने वाला अणुव्रती होता है ।
प्रत्याख्यान क्रोध -- जैसे धूलि - रेखा ( स्थिर )
प्रत्याख्यान मान - जैसे काठ का खम्भा (दृढ़ )
प्रत्याख्यान माया - जैसे चलते बैल की मूत्रधारा ( वक्र )
प्रत्याख्यान लोभ - जैसे खञ्जन का रंग (गाढ़ )
इनके उदयकाल में चारित्र - विकारक परमाणुओं का पूर्णतः निरोध. ( संवर ) नहीं होता । यह अपूर्ण अवत श्राखव की भूमिका है। यह महावती जीवन की वाधक है। इसके अधिकारी अणुव्रती होते हैं। यहाँ श्रात्म-रमण की वृति का आरम्भिक अभ्यास होने लगता है। इसे पार करने वाले महाव्रती बनते हैं।
संब्बलन क्रोध---जैसे जल-रेखा ( अस्थिर-तात्कालिक ) संज्वलन मान - जैसे लता का खम्भा ( लचीला ) 1