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________________ २०६ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वे सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। सत् से सत्-कर्मबर्गणाए और असत् से असत् कर्म वर्गणाए आकृष्ट होती हैं । यही संसार, जन्म-मृत्यु या भव- परम्परा है । इस दशा में आत्मा विकारी रहता है। इसलिए उस पर अनगिनत वस्तु और वस्तु-स्थितियों का असर होता रहता है। असर जो होता है, उसका कारण आत्मा की अपनी विकृत दशा है । विकारी दशा छूटने पर शुद्ध आत्मा पर कोई वस्तु प्रभाव नहीं डाल सकती । यह अनुभव सिद्ध बात है --- श्रसमभावी व्यक्ति, जिसमें राग-द्वेष का प्राचुर्य होता है, को पग-पग पर सुख-दुःख सताते हैं । उसे कोई भी व्यक्ति थोड़े में प्रसन्न और थोड़े में प्रसन्न बना देता है। दूसरे की चेष्टाएं उसे बदलने में भारी निमित्त बनती हैं। समभावी व्यक्ति की स्थिति ऐसी नहीं होती । कारण यही कि उसकी आत्मा में विकार की मात्रा कम है या उसने ज्ञान द्वारा उसे उपशान्त कर रखा है। पूर्ण विकास होने पर श्रात्मा पूर्णतया स्वस्थ हो जाती है, इसलिए पर वस्तु का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता । शरीर नहीं रहता तत्र उसके माध्यम से होने वाली संवेदना भी नहीं रहती । श्रात्मा सहजवृत्त्या प्रकम्प - डोल है । उसमें कम्पन शरीर-संयोग से होता है । शरीर होने 1 1 पर वह नहीं होता | शुद्ध श्रात्मा के स्वरूप की पहिचान के लिए आठ मुख्य बातें हैं :-- ( १ ) अनन्त ज्ञान (५) सहज - श्रानन्द (२) अनन्त दर्शन (६) अटल - अवगाह (७) मूर्तिकपन ( ३ ) चायक- सम्यक्त्व ( ४ ) लब्धि (5) गुरु-लघु-भाव थोड़े विस्तार में यूं समझिए - मुक्त आत्मा का ज्ञान दर्शन अबाध होता है। - उन्हें जानने में बाहरी पदार्थ रुकावट नहीं डाल सकते। उनकी श्रात्म-रुचि यथार्थ होती है । उसमें कोई विपर्यास नहीं होता। उनकी लब्धि श्रात्मशक्ति भी बांध होती है। वे पौद्गलिक सुख दुःख की अनुभूति से रहित होती है। वे बाह्य पदार्थों को जानती हैं किन्तु शरीर के द्वारा होने वाली उसकी अनुभूति उन्हें नहीं होती। उनमें न जन्म-मृत्यु की पर्याय होती है, नं रूप और न गुरुलघु भाष ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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