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जैन दर्शन के मौलिक तत्व प्रात्मा का भावेष्टन बनने के बाद जो उन्हें नई बनावट या नई शक्ति मिलती है, उसका परिपाक होने पर वे फल देने या प्रभाव डालने में समर्थ होती है।
प्रशापना (३५) में दो प्रकार की वेदना बताई है।
(१) अाभ्युपगमिकी :-अभ्युपगम-सिद्धान्त के कारण जो कष्ट सहा जाता है वह श्राभ्युपगमिकी वेदना है।
(२) औपक्रमिकी :-कर्म का उदय होने पर अथवा उदीरणा द्वारा कर्म के उदय में आने पर जो कष्टानुभूति होती है, वह औपक्रमिकी वेदना है।
उदीरणा जीव अपने आप करता है अथवा इष्ट-अनिष्ट पुद्गल सामग्री अथवा दूसरे व्यक्ति के द्वारा हो जाती है। आयुर्वेद के पुरुषार्थ का यही निमित है।
वेदना चार प्रकार से भोगी जाती है :(१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से (३) काल से (1) भाव से। द्रव्य से :-जल-वायु के अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु के संयोग से। क्षेत्र से :-शीत-उष्ण आदि-आदि अनुकूल-प्रतिकूल स्थान के संयोग से। काल से :-मीं में हैजा, सर्दी में बुखार, निमोनिया अथवा अशुभ ग्रहों
के उदय से। भाव से:-असात वेदनीय के उदय से।
वेदना का मूल असात-वेदनीय का उदय है। जहाँ भाव से वेदना है वहीं द्रव्य, क्षेत्र और काल उसके ( वेदना के ) निमित बनते हैं। भाव-वेदना के अभाव में द्रव्यादि कोई असर नहीं डाल सकते। कर्म-वर्गणाएं पौद्गलिक हैं अतएव पुद्गल-सामग्री उसके विपाक या परिपाक में निमित बनती है।
धन के पास धन आता है-यह नियम कर्म-वर्गणाओं पर भी लागू होता है। कर्म के पास कर्म पाता है। शुद्ध या मुक्त आत्मा के कर्म नहीं लगता। कर्म से बन्धी आत्मा का कषाय-लेप तीव्र होता जाता है। तीन कषाय तीव्र कम्पन पैदा करती है और उसके द्वारा अधिक कर्म-वर्गणाएं खींची जाती है।
इसी प्रकार प्रवृत्ति का प्रकम्पन भी जैसा तीव्र या मन्द होता है, वैसी ही प्रचुर या न्यून मात्रा में उनके द्वारा कर्म-वर्गणाओं का ग्रहण होता है। प्रति