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________________ २१२१ जैन दर्शन के मौलिक तत्व शुद्धि के द्वारा उनकी मोहक-शक्ति का मालिन्य धुल जाने के कारण ये प्रात्मवर्शन में सम्मोह पैदा नहीं कर सकते। चायिक-सम्यक्त्वी दर्शन-मोह के परमाणुओं को पूर्ण रूपेण नष्ट कर डालता है। वहाँ इनका अस्तित्व मी शेष नहीं रहता। यह वास्तविक या सर्व-विशुद्ध सम्यग् दर्शन है। पहले दोनों (औपशमिक और शायौपशमिक) प्रतिघाती हैं, पर अप्रतिपाती हैं। मिथ्या दर्शन के तीन रूप काल की दृष्टि से मिथ्या दर्शन के तीन विकल्प होते हैं:(१) अनादि अनन्त (२) अनादि-सान्त ( ३) सादि-सान्त । (१) कमी सम्यगू दर्शन नहीं पाने वाले ( अभव्य या जाति भव्य ) जीवों की अपेक्षा मिथ्या दर्शन अनादि-अनन्त हैं। (२) पहली बार सम्यग् दर्शन प्रगट हुआ, उसकी अपेक्षा यह अनादिसान्त है। (३) प्रतिपाति सम्यग् दर्शन ( सम्यग् दर्शन पाया और चला गया ) की अपेक्षा वह सावि-सान्त है । सम्यग् दर्शन के दो रूप सम्यग् दर्शन के सिर्फ दो विकल्प बनते हैं : (१) सादि-सान्त (२) सादि-अनन्त । प्रतिपाति (औपशमिक और बायौपशमिक) सम्यग् दर्शन सादि-सान्त हैं। अप्रतिपाति (सायिक)सम्यग-दर्शन सादि-अनन्त होता है। मिथ्या दर्शनी एक बार सम्यग् दर्शनी बनने के बाद फिर से मिथ्या दर्शनी बन जाता है। किन्तु अनन्त काल को असीम मर्यादा तक वह मिथ्या दर्शनी ही बना नहीं रहता है, इसलिए मिथ्या दर्शन सादि-अनन्त नहीं होता। सम्यग दर्शन सहज नहीं होता। वह विकास-दशा में प्राप्त होता है, इसलिए वह अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त नहीं होता। सम्यग् दर्शन और पुख . (१) चामिक सम्यम् दर्शनी अपुजी होता है। इसके कान मोह के
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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