________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
૧
चापशमिक सम्यग् दर्शनी ( अपूर्व करण में ) अन्थि भेद कर मिथ्यात्व
मोह के परमाणुत्रों को तीन पुंजों में बांट देता है :
( १ ) अशुद्ध पुञ्ज - यह पूर्ण श्रावरण है।
(२) अशुद्ध पुञ्ज - यह अर्धावरण है 1 (३) शुद्ध पुज - यह पारदर्शक है।
तीन पुत्र
--
(१) मैला कपड़ा, कोरे जल से धुला कपड़ा और साबुन से धुला
कपड़ा ।
(२) मैला जल, थोड़ा स्वच्छ जल और स्वच्छ जल ।
(३) मादक द्रव्य, अर्ध-शोधित मादक द्रव्य और पूर्ण-शोधित मादक
द्रव्य ।
जैसे एक ही वस्तु की ये तीन-तीन दशाएं हैं, वैसे ही दर्शन-मोह के श्रात्मा का परिणाम अशुद्ध होता है, उनकी मादकता सम्यग् दर्शन को श्रात्मा का परिणाम कुछ शुद्ध
तब उन परमाणुओं का दो
परमाणुओं की भी तीन दशाएं होती है। तब वे परमाणु एक पुञ्ज में ही रहते हैं। मुढ़ बनाए रखती है। यह मिथ्यात्व - दशा है । होता है ( मोह की गांठ कुछ ढीली पड़ती है रूपों में पुञ्जीकरण होता है - ( १ ) अशुद्ध (२) अर्ध शुद्ध । दूसरे पुञ्ज में मादकता का लोहावरण कुछ टूटता है, उसमें सम्यग् दर्शन की कुछ पारदर्शक रेखाए ं खिंच जाती है। यह सम्यग् मिथ्यात्व ( मिश्र ) वशा है ।
)
आत्मा का परिणाम शुद्ध होता है, उन परमाणुत्रों की मादकता घो डालने में पूर्ण होता है, तब उनके तीन पुञ्ज बनते हैं। तीसरा पुञ्ज शुद्ध होता है।
aritपशमिक सम्यग् दर्शनी पहले दो पुओं को निष्क्रिय बना देता है १५ । तीसरे पुञ्ज का उदय रहता है, पर वह शोधित होने के कारण शक्ति हीन बना रहता है। इसलिए यथार्थ दर्शन में बाधा नहीं डालता । मैले अभ्रक या काच में रही हुई बिजली या दीपक पार की वस्तु को प्रकाशित नहीं करती। उन्हें साफ कर दिया जाए, फिर वे उनके प्रकाश-प्रसरण में बाधक नहीं बनते । वैसे ही शुद्ध पुज सम्यग् दर्शन को मूढ़ बनाने वाले परमाणु हैं। किन्तु परिणाम