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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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इसके गर्भ में समाए हुए हैं।
पृथ्वियां आठ हैं । सब से छोटी पृथ्वी 'सिद्ध शिला' है वह ऊँचे लोक
में है ।
( १ ) रत्न प्रभा ( २ ) शर्करा प्रभा ( ३ ) बालुका प्रभा ( ४ ) पक्क प्रभा (५) धूम प्रभा (६) तमः प्रभा ( ७ ) महातम प्रभा -- ये सात बड़ी पृथ्वियां हैं। ये सातों नीचे लोक में हैं। पहली पृथ्वी का ऊपरी भाग तिरके लोक में है। हम उसी पर रह रहे हैं। यह पृथ्वी एक ही है । किन्तु जल और स्थल के विभिन्न आवेष्टनों के कारण वह असंख्य भागों में बंटी हुई है । जैन सूत्रों में इसके वृहदाकार और प्रायः अचल मर्यादा का स्वरूप लिखा
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गया है । पृथ्वी के लध्वाकार और चल मर्यादा में परिवर्तन होते रहते हैं । वृहदाकार और अचल मर्यादा के साथ लध्वाकार और चल मर्यादा की संगति नहीं होती, इसीलिए बहुत सारे लोग श्रसमञ्जस में पड़े हुए हैं।
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प्रो० घासीराम जैन ने इस स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है "विश्व की मूल प्रकृति तो कदाचित् अपरिवर्तनीय हो किन्तु उसके भिन्न-भिन्न अङ्गों की आकृति में सर्वदा परिवर्तन हुआ करते हैं। ये परिवर्तन कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन नहीं किन्तु कभी-कभी भयानक हुआ करते हैं उदाहरणत: भूगर्भ शास्त्रियों को हिमाचल पर्वत की चोटी पर वे पदार्थ उपलब्ध हुए हैं जो समुद्र की तली में रहते हैं। जैसे, सीप, शंख, मछलियों के अस्थिपञ्जर-प्रभृति” । श्रत एव इससे यह सिद्ध हो चुका है कि अब से ३ लाख वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत समुद्र के गर्भ में था। स्वर्गीय पण्डित गोपालदासजी वरैय्या अपनी--'" जैन नागरफी” नामक पुस्तक में लिखते हैं :--
" चतुर्थ काल के आदि में इस श्रार्य खण्ड में उपसागर की उत्पत्ति होती है जो क्रम से चारों तरफ को फैलकर श्रार्य खण्ड के बहुभाग को रोक लेता है। वर्तमान के एशिया, योरोप, अफ्रिका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया
ये पांचों महाद्वीप इसी आर्य-खण्ड में हैं। उपसागर ने चारों ओर फैलकर ही इनको द्वीपाकार बना दिया है। केवल हिन्दुस्तान को ही आर्य-खण्ड नहीं सममना चाहिए ।"