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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
२- प्रायोगिक
३--- मिश्र
· स्वभावतः जिनका परिणमन होता है वे वैस्रसिक, जीव के प्रयोग से शरीरादि रूप में परिणत पुद्गल प्रायोगिक और जीव के द्वारा मुक्त होने पर भी जिनका जीव के प्रयोग से हुआ परिणमन नहीं छूटता अथवा जीव के प्रयत्न और स्वभाव दोनों के संयोग से जो बनते हैं, वे मिश्र कहलाते हैं, जैसे
१- प्रायोगिक परिणाम - जीवच्छरीर
२-- मिश्र परिणाम मृत शरीर
३ - बैलसिक परिणाम - उल्कापात
इनका रूपान्तर असंख्य काल के बाद अवश्य ही होता है ।
पुद्गल द्रव्य में एक ग्रहण नाम का गुण होता है। पुद्गल के सिवाय अन्य पदार्थों में किसी दूसरे पदार्थ से जा मिलने की शक्ति नहीं है। पुद्गल का आपस में मिलन होता है वह तो है ही, किन्तु इसके अतिरिक्त जीव के द्वारा उसका ग्रहण किया जाता है। पुद्गल स्वयं जाकर जीव से नहीं चिपटता, किन्तु वह जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ संलग्न होता है । जीव-सम्बद्ध पुद्गल का जीव पर वहुविध असर होता है, जिसका श्रदारिक आदि वर्गणा के रूप में श्रागे उल्लेख किया जाएगा ।
प्राणी और पुद्गल का सम्बन्ध
प्राणी के उपयोग में जितने पदार्थ आते हैं, वे सब पौद्गलिक होते हैं ही, किन्तु विशेष ध्यान देने की बात यह है कि वे सब जीव-शरीर में प्रयुक्त हुए होते हैं । तात्पर्य यह है कि मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, साग-सब्जी और त्रस कायिक जीवों के शरीर या शरीरमुक्त पुद्गल हैं ।
दूसरी दृष्टि से देखें तो स्थूल स्कन्ध वे ही हैं, जो बिखसा परिणाम से औदारिक आदि वर्गणा के रूप में सम्बद्ध होकर प्राणियों के स्थूल शरीर के रूप में परिणत अथवा उससे मुक्त होते हैं ८९ । वैशेषिकों की तरह जैन-दर्शन में पृथ्वी, पानी आदि के परमाणु पृथग् लक्षण वाले नहीं हैं। इन सब में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, वे सभी गुण रहते हैं।