SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१R जैन दर्शन के मौलिक तस्व विभाग है, आकाश का गुण शब्द नहीं है। शब्द-पुद्गलों के संघात और भेद का कार्य है । आकाश का गुण अवगाहन है, वह स्वयं अनासम्ब है, शेष सब द्रव्यों का पालम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्व-प्रतिष्ठ है। किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठ होते हैं। इसीलिए उसे सब द्रव्यों का भाजन कहते हैं । गौतम-भगवन् ! आकाश-तत्त्व से जीवों और अजीयों को क्या लाम होता है ? भगवान्-गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहाँ होते है ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ! काल कहाँ बरतता ! पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता ?--यह विश्व निराधार ही होता है। द्रव्य-दृष्टि-आकाश-अनन्त प्रदेशात्मक द्रव्य है। क्षेत्र दृष्टि-आकाश-अनन्त विस्तार वाला है-लोक-अलोकमय है। काल-दृष्टि-आकाश-अनादि अनन्त है। भाव-दृष्टि-आकाश अमूर्त है। आकाश के जिस भाग से वस्तु का व्यपदेश या निरूपण किया जाता है, वह दिक कहलाता है। दिशा और अनुदिशा की उत्पत्ति तिर्यक् लोक से होती है। दिशा का प्रारम्भ आकाश के दो प्रदेशों से शुरू होता है और उनमें दोदो प्रदेशों की वृद्धि होते-होते वे असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती हैं। अनुदिशा केवल एक देशात्मक होती है। ऊर्च और अधः दिशा का प्रारम्भ चार प्रदेशों से होता है फिर उनमें वृद्धि नहीं होती । यह दिशा का प्रागमिक स्वरूप है। जिस व्यक्ति के जिस ओर सूर्योदय होता है, वह उसके लिए पूर्व और जिस ओर सूर्यास्त होता है, वह पश्चिम तथा दाहिने हाथ की और दक्षिण और बाएं हाथ की ओर उत्तर दिशा होती है। इन्हें ताप-दिशा कहा जाता है । निमित्त-कथन आदि प्रयोजन के लिए दिशा का एक प्रकार और होता है। प्रशापक जिस ओर मुंह किये होता है वह पूर्व, उसके पृष्ठ भाग
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy