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जैन दर्शन के मौलिक तत्व गौतम-"मगवन् ! स्थिति-सहायक-तत्त्व (अधर्मास्तिकाय ) से जीवों को क्या लाभ होता है?"
भगवान्-"गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो खड़ा कौन रहता ! कौन बैठता सोना कैसे होता! कौन मन को एकाम करता ? मौन कौन करता ! कौन निस्पन्द बनता ! निमेष कैसे होता है यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर है उन सब का पालम्बन स्थिति-सहायक तत्व ही है ।"
सिद्धसेन दिवाकर धर्म-अधर्म के स्वतन्त्र द्रव्यत्व को आवश्यक नहीं मानते। वे इन्हें द्रव्य के पर्याय-मात्र मानते हैं । आकाश और दिक
"धर्म और अधर्म का अस्तित्व जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन द्वारा स्वीकृत नहीं है।" श्राकाश और दिक के बारे में भी अनेक विचार प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिक आकाश और दिक् को पृथक् द्रव्य मानते हैं। कुछ दिक को आकाश से पृथक् नहीं मानते।
कणाद ने दिक् को नौ द्रव्यों में से एक माना है।
न्याय और वैशेषिक जिसका गुण शब्द है, उसे आकाश और जो बाह्य जगत् को देशस्थ करता है उसे दिक मानते हैं। न्याय कारिकावली के अनुसार दूरत्व और सामीप्य तथा क्षेत्रीय परत्व और अपरत्व की बुद्धि का जो हेतु है वह विक है। वह एक और नित्य है। उपाधि-भेद से उसके पूर्व, पश्चिम आदि विभाग होते हैं।
दरान्तिकादिधीहेतुरेका नित्यादिगुच्यते (४६) । उपाधिभेदादेकापि, प्राच्यादि व्यपदेशभाक (४७)
कणाद सूत्र ( २१२।१३) के अनुसार इनका भेद कार्य-विशेष से होता है। यदि वह शब्द की निपत्ति का कारण बनता है तो आकाश कहलाता है और यदि वह बाल-जगत् के अर्थों के देशस्थ होने का कारण बनता है तो दिक कहलाता है।
अभिधम्म के अनुसार आकाश एक धातु है। आकाश-धात का कार्य रूपपरिच्छेद (अवं, अधः और तिर्यक् रूपों का विभाग) करना है।
जैन दर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है। दिक उसीका काल्पनिक