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जैन दर्शन के मौलिक तत्व है, मध्यस्थ (निन्दा और स्तुति में सम) है, अका-मावृत (प्रकोपी और प्रमायी ) है, वही जाति-सम्पन्न है ! जाति-मद का परिणाम
भगवान् ने तेरह क्रिया-स्थान (कर्म-बन्ध के कारण) बतलाए हैं, उनमें नौषा क्रिया स्थान 'मान-प्रत्यायिक' है। कोई पुरुष जाति, कुल बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य और प्रजा के मद अथवा किसी दूसरे मद-स्थान से उन्मत्त होकर दूसरों की अवहेलना, निन्दा और गर्हणा करता है, उनसे घृणा करता है, उन्हें तिरस्कृत और अपमानित करता है-यह दीन है, मैं जाति, कुल, बल आदि गुणों से विशिष्ट हूँ-इस प्रकार गर्व करता है, वह अभिमानी पुरुष मरकर गर्भ, जन्म और मौत के प्रवाह में निरन्तर चकर लगाता है। क्षण भर भी उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल सकती ३॥ जाति परिवर्तनशील है
जातियां सामयिक होती हैं। उनके नाम और उनके प्रति होने वाला प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का भाव बदलता रहता है। जैन-आगमों में जिन जाति, कुल और गोत्रों का उल्लेख है, उनका अधिकांश आज उपलब्ध भी नहीं है।
(१) अंबष्ठ (२) कलन्द (३) वैदेह (४) वैदिक (५) हरित (६) चुचुण-ये छह प्रकार के मनुष्य जाति-श्रार्य या इभ्य जाति वाले हैं 31
(१) उग्र (२) भोग (३) राजन्य (v) इक्ष्वाकु (५) शात (६) कौरवये छह प्रकार के मनुष्य कुलार्य है ।
(१) काश्यप (२) गौतम (३) वत्स (४) कुत्स (५) कौशिक (६) मण्डल (७) विशिष्ट-ये सात मूल गोत्र हैं। इन सातों में से प्रत्येक के सात-सात अवान्तर मेद हैं ।
वर्तमान में हजारों नई नातियां बन गई हैं . . इनकी यह परिवर्तनशीलता ही इनकी अतांत्विकता का स्वयं सिद्ध प्रमाण है। पुरुष त्रिवर्ग
पुरुष तीन प्रकार के होते हैं-(१) उसम (२) मध्यम (१)जघन्य । , तम पुरुष भी तीन प्रकार के होते हैं-(१)धर्म पुरुष ( वीर्वकर, सर्वन)