________________
जैन दर्शन के मौलिक नाव : १६५ . मया कोई प्रावमी मोबादी या माननादी होगा। वह प्राणी अनेक पोलियों में जन्म लेता रहा है, तब भला यह कहाँ पर होगा। . . . .: ___ जन्म-कुलों की विविधता और परिवर्तनशीलता जान पंक्ति मादमी सातारा कुल पा उत्कर्ष न लाए और सरकारहीन कुल पा अपकर्ष नहीं लाए। वह सोचे कि सत्कार और असत्कार अपने अर्जित कर्मों के वियाक है। सब प्राणी सुख चाहते हैं, इसलिए किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट न दें।
एक जन्म में एक प्राणी अनेक प्रकार की ऊंच नीच अवस्थाएं भोग लेता है। इसीलिए उच्चता का अभिमान करना उचित नहीं है "
जो साधक जाति आदि का मद करता है, दूसरों को परछाई की मांति तुच्छ समझता है, वह अहंकारी पुरुष सर्वक मार्ग का अनुगामी नहीं है। वह वस्तुतः मूर्ख है, पण्डित नहीं है । ___ ब्राह्मण, क्षत्रिय, उमपुत्र और लिच्छवी-इन विशिष्ट अभिमानास्पद कुलों में उत्पन्न हुमा व्यक्ति दीक्षित होकर अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता। वही सर्वश-मार्ग का अनुगामी है। जो मिटु परदत्त-भोगी होता है, मिक्षा से जीवन-यापन करता है, वह भला किस बात का अभिमान करे। __अभिमान से कुछ बनता नहीं, बिगड़ता है। जाति और कुल मनुष्यों को त्राण नहीं दे सकते। दुर्गति से बचाने वाले दो ही तस्व है। ये है--विया और आचरण (चरित्र)। .
जो साधक साधना के क्षेत्र में पैर रखकर मी गृहस्थ-कर्म का सेवन करता है, जाति आदि का मद करता है, वह पारगामी नहीं बन सकता""
- साधना का प्रयोजन मोक्ष है। वह अगोत्र है। उसे सर्व-गोत्रापगले (जाति गोत्र के सारे बन्धनों से छूटे हुए ) महर्षि ही पा सकते है । . जाति-सम्पन्न (जाति-श्रेष्ठ) कौन ! बड़े कुल में पैग होने मात्र से कोई
पुरुष कुलीन नहीं होता। जिसका शील ऊंचा है, वही कुलीन है । ___ जो पुरुष पेशल (मिष्ट-भाषी) है, सूक्ष्म (सूक्ष्म-दर्शी या सूरम-भाषी)
है, ऋणुशार (संयमतील) या ऋचार (बड़ों की शिक्षा के अनुसार बरतने . .सला) है, बात (यारला सुनकर भी चिर-पतिकी भस्म रखने वाला)