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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
1943
मिलनेवाले जाति और कुल ऐसे होने चाहिए, जो प्राणीमात्र से सम्बन्ध रखें । इस दृष्टि से देखा जाए तो जाति का अर्थ होता है--उत्पत्ति स्थान और कुल का अर्थ होता है—एक योनि में उत्पन्न होने वाले अनेक वर्ग" । ये ( जातियां और कुल ) उतने ही व्यापक है जितना कि गोत्र-कर्म । एक मनुष्य का उत्पत्ति-स्थान, बड़ा भारी स्वस्थ और पुष्ट होता है, दूसरे का बहुत रुग्ण और दुर्बल। इसका फलित यह होता है-जाति की अपेक्षा 'उच्चगोत्र'-- विशिष्ट जन्म-स्थान, जाति की अपेक्षा 'नीच गोत्र' - निकृष्ट जन्म-स्थान | जन्म-स्थान का अर्थ होता है--मातृपक्ष या मातृस्थानीय पक्ष । कुल की भी यही बात है। सिर्फ इतना अन्तर है कि कुल में पितृपक्ष की विशेषता होती है। जाति में उत्पत्ति-स्थान की विशेषता होती है और कुल में उत्पादक श्रंशकी १८ । 'जायन्ते जन्तवोऽस्यामिति जातिः " 'मातृसमुत्था जातिः २० १, 'जाति गुणवन्मातृकत्वम् ' ', 'कुल गुणवत् पितृकत्वम् २ २” -- इनमें जाति और कुल की जो व्याख्याएं की हैं— सब जाति और कुल का सम्बन्ध उत्पत्ति से जोड़ती हैं।
तस्व-दृष्टि से जाति की असारता
कर्म विपाक की दृष्टि से अर्थ का महत्त्व है, वहाँ आध्यात्मिक दृष्टि से वह का मूल है। यही बात जाति की है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोकस, ऐशिक (मांस-भोजी), वैशिक ( कलाजीवी ) और शूद्र -- इनमें से किसी भी जाति के व्यक्ति हों, जो हिंसा और परिग्रह से बंधे हुए हैं, वे दुःख से मुक्ति नहीं पा सकते ३ ।
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हरिकेशबल मुनि ने ब्राह्मणकुमारों से कहा- जो व्यक्ति क्रोध, मान, वध, मृषा, दत्त और परिग्रह से घिरे हुए हैं, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से हीन हैं और वे पापकारी क्षेत्र २४ ।
ब्राह्मण वही है जो ब्रह्मचारी है ५ ।
arfi जयघोष विजयघोष की यशस्थली में गए। दोनों में चर्चा चली । जातिवाद का प्रश्न आया । भगवान् महावीर की मान्यताओं को स्पष्ट करते हुए मुनि बोले- "जो निसंग और निःशोक है और श्रार्य-वाणी में रमता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो तपे हुए सोने के समान निर्मल है, राग, द्वेष