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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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जीवात्मा के पौद्गलिक सुख-दुःख के निमित्तभूत चार कर्म है—वेदनीय, नाम, गोत्र, और श्रायुष्य । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं -सात बेनीय-असात वेदनीय, शुभनाम-अशुभनाम, उबगोत्र नीचगोत्र, शुभश्रायुअशुभप्रायु। मनचाहे शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श मिलना एवं सुखद मन, वाणी और शरीर का प्राप्त होना सातवेदनीय का फल है । असातावेदनीय का फल ठीक इसके विपरीत है। शुभ श्रायु कर्म का फल है - सुखपूर्ण लम्बी आयु और अशुभ श्रायु कर्म का फल है - - श्रोछी श्रायु तथा दुःखमय लम्बी आयु । शुभ और अशुभ नाम होना क्रमशः शुभ और अशुभ नाम कर्म - का फल है। जाति-विशिष्टता, कुल-विशिष्टता, बल-विशिष्टता, रूप-विशिष्टता, तप - विशिष्टता, श्रुत-विशिष्टता, लाभ- विशिष्टता और ऐश्वर्य विशिष्टता - ये प्राठ गोत्र-कर्म के फल हैं । नीच गोत्र कर्म के फल ठीक इसके विपरीत हैं। गोत्र-कर्म के फलों पर दृष्टि डालने से सहज पता लग जाता है कि गोत्र-कर्म व्यक्ति व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है, किसी समूह से नहीं। एक व्यक्ति में भी आठों प्रकृतियां 'उच्चगोत्र' की ही हों या 'नीचगोत्र' की ही हों, यह भी कोई नियम नहीं । एक व्यक्ति रूप और बल से रहित है, फिर भी अपने कर्म से सत्कार - योग्य और प्रतिष्ठा प्राप्त है तो मानना होगा कि वह जाति से उच्चगोत्र-कर्म भोग रहा है और रूप तथा बल से नीच गोत्रकर्म । एक व्यक्ति के एक ही जीवन में जैसे न्यूनाधिक रूप में सात वेदनीय और असात वेदनीय का उदय होता रहता है, वैसे ही उच्च-नीच गोत्र का भी । इस सारी स्थिति के अध्ययन के पश्चात् 'गोत्रकर्म' और 'लोक- प्रचलित जातियां' सर्वथा पृथक हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं रहता ।
अब हमें गोत्र-कर्म के फलों में गिनाये गये जाति और कुल पर दूसरी दृष्टि से विचार करना है । यद्यपि बहुलतया इन दोनों का अर्थ व्यवहार सिद्ध जाति और कुल से जोड़ा गया है फिर भी वस्तुस्थिति को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि यह उनका वास्तविक अर्थ नहीं, केवल स्थूल दृष्टि से किया गया विचार या बोध-सुलभता के लिये प्रस्तुत किया गया उदाहरणमात्र है । फिर एक बार उसी बात को दुहराना होगा में है और योत्र-कर्म का सम्बन्ध प्राणीमात्र से है।
कि जातिभेद सिर्फ मनुष्यों
इसलिए उसके फलरूप में