________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व लेश्या की श्रेणी में आती है । सांख्यदर्शन'३४ तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में रजः, सत्त्व और तमोगुण को लोहित, शुक्र और कृष्ण कहा गया है १२५॥ यह द्रव्य-लेश्या का रूप है। रजोगुण मन को मोहरंजित करता है, इसलिए वह लोहित है। सत्व गुण से मन मलरहित होता है, इसलिए वह शुक्र है। तमो गुण शान को श्रावृत करता है, इसलिए वह कृष्ण है। कर्म के संयोग और वियोग से होने वाली आध्यात्मिक विकास और हास की
---
-
-
रेखाएं
इस विश्नमें जो कुछ है, वह होता रहता है। 'होना' वस्तु का स्वभाव है। 'नहीं होना' ऐमा जो है, वह वस्तु ही नहीं है । वस्तुएं तीन प्रकार की है
(१) अचेतन और अमूर्त-धर्म, अधर्म, आकाश, काल । (२) , , मूर्त-पुद्गल।। (३) चंतन और अमूर्त-जीव।। पहली प्रकार की वस्तुओं का होना-परिणामतः स्वाभाविक ही होता है और वह सतत् प्रवहमान रहता है। ___पुद्गल में स्वाभाविक परिणमन के अतिरिक्त जीव-कृत प्रायोगिक परिणमन भी होता है। उसे अजीबांदय-निष्पन्न कहा जाता है १२॥ शरीर
और उसके प्रयोग में परिणत पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये अजीवोदय-निष्पन्न हैं। यह जितना दृश्य संसार है, वह सब या तो जीवत् शरीर है या जीव-मुक्त शरीर । जीव में स्वाभाविक और पुद्गलकृत प्रायोगिक परिणमन होता है।
स्वाभाविक परिणमन अजीव और जीव दोनों में ममरूप होता है। पुद्गल में जीवकृत परिवर्तन होता है, वह केवल उसके संस्थान प्राकार का होता है। वह चंतनाशील नहीं, इसलिए इससे उसके विकास हास, उन्नति-अवनति का क्रम नहीं बनता। पुद्गलकृत जैविक परिवर्तन पर आत्मिक विकास-हास, पारोह-पतन का क्रम अक्लम्बित रहता है। इसी प्रकार उससे नानाविध अवस्थाएं और अनुभूतियां बनती हैं। वह दार्शनिक चिन्तन का एक मौलिक विषय बन जाता है। जैन दर्शन ने इस आध्यात्मिक परिवर्तन की चार श्रेणियां निर्धारित की है