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________________ १५२] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व ये तीन धर्म -लेश्याए हैं। उक्त प्रकरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि आत्मा के भले और बुरे अध्यवसाय ( भाव-लेश्या ) होने का मूल कारण मोह का अभाव ( पूर्ण या अपूर्ण) या भाव है। कृष्ण आदि पुद्गल द्रव्य भले-बुरे श्रध्यवसायों के सहकारी कारण बनते हैं। तात्पर्य यह है कि मात्र काले, नीले आदि पुद्गलों से ही आत्मा के परिणाम बुरे-भले नहीं बनते 1 परिभाषा के शब्दों में कहें तो सिर्फ द्रव्य लेश्या के अनुरूप ही भाव- लेश्या नहीं बनती । मोह का भाव प्रभाव तथा द्रव्य लेश्या-इन दोनों के कारण आत्मा के बुरे या भले परिणाम बनते हैं। द्रव्य लेश्यात्रों के स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण • जानने के लिए देखो यन्त्र | लेश्या वर्ण कृष्ण नील कापोत तेजस् पद्म शुक्ल रस काजल के समान नीम से अनन्त काला गुण कटु नीलम के समान सोंठ से अनन्त नीला गुण तीक्ष्ण कबूतर के गले के कच्चे आम के रस समान रंग अनन्तगुणतिक्त हिंगुल - सिन्दूर के पके ग्राम के रस से समान रक्त हल्दी के समान पीला अनन्त गुण मधुर मधु से अनन्त गुण मिष्ट गन्ध मृत सर्प की गन्ध से अनन्त गुण अनिष्ट गंध। सुरभि - कुसम की गन्ध से स्पर्श गाय की जीभ से अनन्त गुण कर्कश नवनीत मक्खन से अनन्त गुण शंख के समान मिसरी से अनन्त अनन्त गुण गुण मिष्ट इष्ट गन्ध सुकुमार प्रज्ञापना का १७ वां जैनेतर ग्रन्थों में सफेद लेश्याकी विशेष जानकारी के लिए पद और उत्तराध्ययन का ३४ वा अध्ययन द्रष्टव्य है। मी कर्म की विशुद्धि या वर्ण के आधार पर जीवों की कई अवस्थाए' बतलाई हैं। तुलना के लिए देखो महाभारत पर्व १२-२८६ । पातञ्जलयोग में वर्णित कर्म की कृष्ण शुक्र-कृष्ण, शुक्र और अशुद्ध-अकृष्ण-ये चार जातियां मान
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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