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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
दर्शन का अर्थ है - तत्त्व का माक्षात्कार या उपलब्धि । मब से प्रमुख तत्त्व प्रात्मा है। "जो आत्मा को जान लेता है, वह सबको जान लेता है १२॥ ___ अस्तित्व की दृष्टि से सब तत्त्व समान हैं किन्तु मूल्य की दृष्टि से प्रात्मा मब से अधिक मूल्यवान् तत्त्व है। कहना यूं चाहिए कि मूल्य का निर्णय
आत्मा पर ही निर्भर है । वस्तु का अस्तित्व स्वयंजात होता है किन्तु उसका मूल्य चेतना से सम्बद्ध हुए बिना नहीं होता। "गुलाब का फूल लाल है"-कोई जाने या न जाने किन्तु “गुलाब का फूल मन हरने वाला है"यह बिना जाने नहीं होता। वह तब तक मनहर नहीं, जब तक किसी आत्मा को वैसा न लगे। “दूध सफेद है"-इसके लिए चेतना से सम्बन्ध होना
आवश्यक नहीं; किन्तु “वह उपयोगी है"-यह मूल्य-विषयक निर्णय चेतना से सम्बन्ध स्थापित हुए बिना नहीं होता । तात्पर्य यह है कि मनोहारी, उपयोगी, प्रिय-अप्रिय आदि मूल्यांकन पर निर्भर है। आत्मा द्वारा अज्ञात वस्तुवृत्त अस्तित्व के जगत् में रहते हैं। उनका अस्तित्व-निर्णय और मूल्य-निर्णय-ये दोनों प्रात्मा द्वारा शात होने पर होते हैं। "वस्तु का अस्तित्व है"-इसमें चेतना की कोई अपेक्षा नहीं किन्तु वस्तु जब जेय बनती है, तब चेतना द्वारा उसके अस्तित्व ( स्वरूप ) का निर्णय होता है। यह चेतना के साथ वस्तु के सम्बन्ध की पहली कोटि है। दूसरी कोटि में उसका मूल्यांकन होता है, तब वह हेय या उपादेय बनती है। उन विवेचन के अनुसार दर्शन के दो कार्य हैं:
१-वस्तुवृत्त विषयक निर्णय । २-मूल्य विषयक निर्णय।
ज्ञेय, हेय और उपादेय-इस त्रिपुटी से इसी तत्त्व का निर्देशन मिलता है । यही तत्त्व 'शपरिक्षा और प्रत्याख्यानपरिशा'-इस बुद्धिद्वय से मिलता है | जैन दर्शन में यथार्थज्ञान ही प्रमाण माना जाता है । सन्निकर्ष, कारक-साकल्य आदि प्रमाण नहीं माने जाते। कारण यही कि वस्तुवृत्त के निर्णय (प्रिय वस्तु के स्वीकार और अप्रिय वस्तु के अस्वीकार) में बही हम है "