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जैन दर्शन की आस्तिकता
जैन दर्शन परम अस्तिवादी है। इसका प्रमाण है अस्तिवाद के चार अंगों की स्वीकृति। उसके चार विश्वास हैं-'आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद ।' भगवान् महावीर ने कहा-"लोक-अलोक, जीव-अजीव, धर्मअधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य पाप, क्रिया-अक्रिया नहीं हैं, ऐमी मंशा मत रखो किन्तु ये सब है, ऐसी संशा रखो।" श्रद्धा और युक्ति का समन्वय ___ यह निम्रन्थ-प्रवचन श्रद्धालु के लिए जितना अासवचन है, उतना ही एक बुद्धिवादी के लिए युक्तिवचन । इसीलिए अागम-साहित्य में अनेक स्थानों पर इसे 'नयायिक' (न्याय-संगत ) कहा गया है । जैन साहित्य में मुनि-वाणी को-“नियोगपर्यनुयोगानहम” (मुनेर्वचः ) नहीं कहा जाता। उसके लिए कमौटी भी मान्य है। भगवान् महावीर ने जहाँ श्रद्धावान् को 'मेधावी' कहा है, वहाँ 'मतिमन् ! देख, विचार'-इस प्रकार स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने समझने का अवसर भी दिया है। यह संकेत उत्तरवत्तीं प्राचार्यों की वाणी में यों पुनरावर्तित हुआ-"परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य, मवचो न तु गौरवात् ।' मोक्ष दर्शन
'एयं पामगस्स दंसणं-यह द्रष्टा का दर्शन है।
सही अर्थ में जैन दर्शन कोई वादविवाद लेकर नहीं चलता। वह आत्ममुक्ति का मार्ग है, अपने आपकी खोज और अपने आपको पाने का रास्ता है । इसका मूल मंत्र है-'सत्य की एषणा करो", 'सत्य को ग्रहण करो', 'सत्य में 'धैर्य रखो," 'सत्य ही लोक में सारभूत है'। दर्शन की परिभाषा
यह संसार अनादि-अनन्त है। इसमें संयोग-वियोगजन्य सुख-दुःख की अविरल धारा बह रही है। उसमें गोता मारते-मारते जब प्राणी थक जाता है, तब वह शाश्वत आनन्द की शोध में निकलता है। वहाँ जो हेय और उपादेय की मीमांसा (युक्ति संगत विवेचना ) होती है, वही दर्शन बन जाता है .''