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[ ६५ । की रचना है, अथवा श्रमणों और वैदिक ऋषियों का मिला जुला प्रयल। कुछ और अतीत में जाएं तो कहा जा सकता है कि यह क्रम आरम्भिक काल तथा उससे पूर्व के काल में ही प्रारम्भ हो गया था। वरुण, केतु और वातरशन' ये तीन प्रकार के ऋषि थे। उनमें वातरशन ऋषि श्रमण थे, भगवान् ऋषम के शिष्य थे। वे ऊर्ध्व मन्थी ( ऊर्ध्वरेता) हो गए। उनके पास कुछ दूसरे ऋषि जिज्ञासा लिए हुए आए। उन्हें पहले ही मालम हो गया था, अतः वे उनके आने से पहले ही अन्तर्हित हो गए। योग सामर्थ्य से शरीर को कम बना 'कृष्माण्ड' नामक मंत्र वाक्य में प्रविष्ट हो गए। बाने वाले ऋषि गण ने चित्त को शान्त किया और ध्यान से देखा तो उन्हें वे वातरशन श्रमण प्रत्यक्ष दीखे। वे वातरशन श्रमण से बोले-"आप क्यों अन्तर्हित हुए ?" तब उन्होंने कहा-"हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमारे स्थान पर आए हैं, हम आपकी क्या परिचर्या करें ।" तब आने वाले ऋषिगण ने कहा-“वातरशन ऋषि! आप हमें वेसा पवित्र-शुद्धि का स्थान बतलाए, जिससे हम पाप रहित हो जाएं।" उन्होंने आने वाले ऋषिगण को शुद्धि का साधन बतलाया और वह ऋषिगण पाप रहित हो गया। ___ इस प्रकार से यह प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि श्रमणों से मिलते थे और उनसे आत्म धर्म का बोध लेते थे। ____ एम० विन्टरनिट्ज ने अर्वाचीन उपनिषदों को अवैदिक माना है। किंतु उक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन उपनिषद् भी पूर्णतः वैदिक नहीं है।
१-वैदिक कोश ४७३-यह शब्द ऋग्वेद १०, १३६-२ में मुनियों के
लिए और तेत्तिरीय आरण्यक १.२३.२,१.२४४, २.७.१. में ऋषियों के लिए आया है। नम साधु अभिप्रेत होते हैं, जिनका
उल्लेख परवर्ती साहित्य में बहुधा मिलता है। २-श्रीमद् भागवत ३-चिरीयारण्यक प्रपाठक २ अनुवाक् ७ पृष्ठ १३७-१३६ ४-प्राचीन भारतीय साहित्य, पृष्ठ १९०-१६१