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साहित्य से भिन्न पूर्ववर्ती श्रमण साहित्य भी विद्यमान था । यह असम्भव महीं कि उपनिषदों का ब्रह्म-विद्या सम्बन्धी विवरण व श्लोक साहित्य किसी पूर्ववर्ती ब्रहम-विद् श्रमण परम्परा का आभारी हो ।
निर्मन्थ परम्परा में उद्दालक, नारद, वरुण, अङ्ग ऋषि यावल्क्य आदि प्रत्येक बुद्ध हुए हैं। उपनिषदों में भी इनका कहीं-कहीं तो विषय साम्य भी है। "जब तक लोकेषणा है तब तक बिलेबा है। जब तक वित्तेषणा है तब तक लोकेषणा है। साधक लोकेषणा और वित्तेषणा का त्याग कर गोपथ से जाए, महापथ से न जाए - यह अर्हत् यावल्क्य ऋषि ने कहा । " "
(या अङ्गिरस) उल्लेख है । "
बृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य कुषीतक के पुत्र कहोल से कहते हैं-- "यह वही आत्मा है, जिसे जान लेने पर ब्रहम-शानी पुत्रैषणा, वित्तेषणा और लोकैषणा से मुंह फेर कर ऊपर उठ जाते हैं। मिक्षा से निर्वाह कर संतुष्ट रहते हैं।... जो पुत्रेषणा है, वही वित्तेषणा है। जो वित्तेषणा है, वही लोषणा है । ४
इसिमिया के याज्ञवल्क्य भी एषणा त्याग के बाद बृहदारण्यक के याशवल्क्य की भांति भिक्षा से सन्तुष्ट रहने की बात कहते हैं।" इस प्रकार दोनों की कथन - शैली में विचित्र समानता है। वैदिक विचारधारा में पुत्रेषणा के त्याग का स्थान नहीं है। उसके अनुसार सन्तानोत्पत्ति आवश्यक कर्म है । इसलिए सहज ही यह प्रश्न होता है कि बृहदारण्यक में एषणा-त्याग का विचार कहाँ से आया ? इस आधार पर यह कल्पना होती है कि उपनिषद् का कुछ मा श्रमणों की रचना है अथवा श्रमण संस्कृति से प्रभावित होने वाले ऋषियों
१- -The Jainas in the history of Indian literature by Dr. Maurice Winternitz, Ph. D. Page 5 - "Even before there was such a thing as Buddhist or Jaina literature, there must have been Shramana literature besides the Brahmanic literature."
२- उद्दालक छान्दोग्य ५, नारद छान्दोग्य ७, अङ्गिरस मुलुक ११२ वरुण तैत्तिरीय ३१, याज्ञवल्क्य वृहदारण्यक ३|४|१
३- ३मिभासियाइ १२
४ -- बृहदारण्यक ३/५/१
- इतिभासियाई १२३१-२
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