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________________ [१७ ] साथ में पैदा होते और जीवन भर एक साथ रहते थे। लेकिन उनके पास कोई निजी मकान या कुटिया नहीं थी, क्योंकि वे मकान बनाना जानते ही नहीं थे। आज तो पक्षियों को भी अपने लिए मकान तैयार करने पड़ते हैं, लेकिन उस समय के मनुष्य भी इन कार्यों से निरपेक्ष थे। फिर भी वे आज की तरह अट्टालिका, गोपुर, प्रसाद, एकसाल, विशाल, चतुःशाल, गर्भगृह, मोहनगृह, वलभीगृह, आपण, नियूह, अयवरक, चन्द्रशाला आदि विविध प्रकार के मकानों में रहते थे। उनमें ऊपर चढ़ने उतरने के लिए सीढियाँ होती थी, प्रवेश करने और निकलने के द्वार थे। परन्तु वे मकान पत्थर के नहीं थे, वृक्ष ही सहज रूप से इन आकारों में परिणत थे। आज तो शिल्पकला भिन्न-भिन्न रूपों में विकास पा रही है। सम्भवतः यह तत्कालीन "गेहाकार वृक्षों का ही अनुकरणमात्र है। लज्जा मनुष्य का सहज धर्म है, इसकी रक्षा के लिए वस्त्र परिधान की परम्परा चली। योग इतिहासकारों ने लिखा है कि आदिवासी मनुष्य वस्त्र नहीं पहनते थे, लेकिन ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास हुआ, पहनना, ओढ़ना भी आवश्यक समझा गया। परन्तु वे लोग वस्त्र बनाने में दक्ष नहीं थे। न तो उस समय खेती की जाती थी और न कल-कारखाने ही थे, जिनसे वस्त्रों का निर्माण हो सके। अतः तत्कालीन मनुष्य वृक्षों की छाल के वस्त्र पहनते थे। जेन सिद्धान्तों में कल्प-वृक्षों द्वारा वस्त्र मिलने की जो बात है वह इस तथ्य से भी पुष्ट होती है। सम्भव है उस समय वृक्षों के पत्ते और छाल इस तरह के होते होंगे जो पहने ओढ़ने के काम में आ सकें। उस समय आजिनक, क्षोम, तनुल, दुकूल, कौसेयक, चीनांकुरा, श्लक्ष्ण, कल्याणक आदि वस्त्र विशेष रक्तपीत और श्वेत आदि वर्गों से चित्रित वस्त्र मृगलोम वस्त्र, रब्लक, वस्त्र आदि विविध प्रकार के वस्त्रों से युक्त "अनग्नक" नामक वृक्ष थे। “येः जना नग्नाः न भवन्तीति अनग्नकाः" इस व्युत्पत्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि वृक्षों के वस्त्र (छाल ) पहनने के काम में आते थे। कई लोगों की मान्यता है कि पहले वस्त्र पहनने को पद्वति नहीं थी, कालान्तर में शीत निवारण के लिए इनका प्रयोग होने लगा और आज वे सभ्यता के के प्रतीक बन गये है। ___ कल्पवृक्ष का जहाँ यह अर्थ किया जाता है कि वे ईप्सित फल देनेवाले २-जहा से पागार हालय चरियदार गोपुर ..." जीवा० पा० ३४६ ३--जहा से अणेगाइग खोय तणुय".""जीवा० पा० ३५०
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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