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व्यक्ति को जो फल रुचिकर लगता, उस था । वे वृक्ष कोई विशिष्ट प्रकार की चक्रवर्ती राजा सुगन्धित श्रेष्ठ कलमा विशिष्ट पदार्थों से मोदक बनवाता है, उनको अनुभव करता है । उसी प्रकार १८ प्रकार के 'चित्ररस' वृक्षों के फल अत्यन्त आनन्दकारक होते थे ।
उस समय 'चित्ररस' नामक वृक्ष विविध प्रकार के फलों से युक्त थे। जिस फल से वह अपनी भूख शान्त करता भोजन सामग्री नहीं देते थे, लेकिन सालि चावलों से खीर बनवाता है, खाकर हर व्यक्ति तृप्ति का विशिष्ट भोजन गुणों से युक्त
आभूषण पहनने की पद्धति भी अति प्राचीन है । यद्यपि आज की भाँति उस समय स्वर्णकार नहीं थे। सोने और चाँदी के आभूषण भी नहीं बनते थे, लेकिन यौगलिक युग के मनुष्य वृक्षों के फूल-पत्तों के आभूषण काम में लेते थे उन्हीं के अनुकरणस्वरूप आज भी सौराष्ट्र आदि में फूलों के गजरे सीसफूल आदि व्यवहार में लिये जाते हैं ।
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अभिज्ञानशकुन्तल में लिखा है "आभरणोचितं " रूपं आश्रमसुलभैः प्रसाधनेविप्रकार्यते” यहाँ आश्रम सुलभ का मतलब वृक्ष निष्पन्न आचरणों से हैं । ऋषि कण्व ने अपने शिष्यों को आदेश दिया, शकुन्तला के लिए आभूषण लाओ । जब वे सुन्दर आभूषण लेकर उपस्थित हुए तो गोतमी ने पूछा आभूषण कहाँ मिले ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा- किसी वृक्ष ने मांगलिक रेशमी साड़ी दी, किसी ने पैरों में लगाने के लिए लाक्षारस दिया और अन्य कई वृक्षों ने नवीन किसलयरूपी कोमल हाथों से यह आभूषण दिये । इससे यह स्पष्ट होता है कि वृक्षों के आभूषण भी काम में लिये जाते थे !
यौगलिक युग में भी मव्यंग' नामक वृक्ष समूह हार, अर्धहार, मुकुट, कुंडल, सूत्र, एकाबलि, चूलामणि, तिलक, कनकावलि, हस्तमालक, केयूर, वलय, अंगूठी, मेखला, घण्टिका, नुपूर, तथा कंचन मणि, रत्नों से युक्त विशेष प्रकार के आभूषण फलों के रूप में देते थे ।
आज जिस ढंग से सामाजिकता पनपी है । प्राग् ऐतिहासिक युग में इसका महत्व नहीं था । परिवार और समाज की किसी को चिन्ता नहीं थी और न सामाजिक सीमाएं थीं। फिर भी मनुष्य अकेले नहीं रहते थे । युगल
१ - जहा से सुगन्ध वर कलम सालि तन्दुल जीवा पा० ३४८
२ - अभिज्ञान शाकुन्तल अंक ४ पृ० ८६
३ - वही अंक ४ पृ० ६० श्लोक ५
४ --- जहा से हारद्वहार मुउड
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• जीवा० पा० ३४६