SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५५ ] शाखाएं वर्तनाकार ही होते थे या उन पत्रों को वतन का रूप दिया जाता था। पात्र विभिन्न प्रकार के होते थे और जिन वृक्षों के पत्र बर्तन के काम में आते उनका नाम 'भृतांग' था। वे वृक्ष' घट ( मिट्टी का) कलश, करकरी (पीतल का भाजन विशेष) पाद काचनिका (पैर धोने की सुवर्ण पात्री), उदक (पानी लेने का पात्र ), भृगार (लोटा), सरक (बांस के पात्र) तथा मणि रलों की रेखाओं से खचित विविध प्रकार के पात्र, पत्र और फलों के रूप में देने वाला भृतांग नामक वृक्ष समूह स्वाभाविक पात्रों से युक्त था। ____ मनुष्य आवश्यक कार्यों में प्रवृत्ति करता है। अपने लिए, समाज के लिए और राष्ट्र के लिए जो हितावह होता है वह सब करता है। लेकिन जब उन कार्यों से थकावट महसूस होती है तो वह मनोरंजन की सामग्री जुटाता है। नृत्य वाद्य आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन हैं। आज का मनुष्य सिनेमा को दिलबहलाव का साधन मानता है, लेकिन यह तो वेशानिक युग की अपनी देन है। अतः प्राग ऐतिहासिक युग की मनोरंजन सामग्री में वादित्र का विशेष स्थान रहा है। विविध प्रकार के वादित्र प्रकृति निष्पन्न थे। उनमें मृदंग, पणव, दर्दरक, करटि, डिंडिम, ढका,मुरज, शंखिका, विपंची, महती, तलताल, कंसताल आदि आतोद्य विधि से युक्त गंर्धव के नाटक करने में कुशल तण आदि, मध्य और अन्त में उपयुक्त वादित्र का प्रयोक्ता दर्शकों को खुश कर लेता है। उसी प्रकार त्रुटितांग नामक वृक्ष-समूह भी स्वभाव से ही तत, वितत, धन सुषिर आदि आतोद्य विधि वाले फलों से युक्त था। योगलिक मनुष्य इन वृक्षों के द्वारा ही मनोरंजन किया करते थे। ___आज विद्युत् शक्ति के द्वारा मनुष्य की प्रत्येक अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं। अन्धकार के समय विद्युत् शक्ति के प्रयोग से सूरज जैसा प्रकाश हो जाता है। लेकिन जब विद्युत्-शक्तियों का आविष्कार नहीं हुआ था तब प्रकाश के लिए 'मशाल' काम में ली जाती थी। सायंकाल के समय चक्रवती राजा की छोटी बड़ी मशालें तेल और बाती युक्त प्रज्वलित होकर तिमिर का नाश करती है वैसे ही विकसित स्वर्णमय पारिजात से वन प्रकाशित होता था। कनक,मणि, रनों से खचित उज्वल, विचित्र वर्ण दण्डों वाली मशालों से अन्धकार को नष्ट करने वाले उज्वल १-घड कलस कडग कक्करी . ...जीवाभि० पा०३४७ २ जहा से नव निहि वहणो दीविया......जीवाभि० पा० ३४७
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy