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[ ५३ ] (१) मांग-पौष्टिक तत्त्व देने वाले वृक्ष । (२) भृतांग- पात्र रूप में फल देने वाले वृक्ष । (३) त्रुटितांग-वीणा पटह आदि वाद्य विधि से युक्त वृक्ष । (४) दीपशिखा--विशेष ज्योतिर्मय वृक्ष। (५) ज्योतिशिखा-सूर्य के समान प्रकाश देने वाले वृक्ष । (६) चित्रांग-माल्य विधियों से युक्त वृक्ष । (७) चित्ररस-विविध प्रकार के भोजन देने वाले वृक्ष । (८) मण्यंग-मणि आदि के आभूषण देने वाले वृक्ष ।
(६) गेहाकार-मकान रूप में परिणत वृक्ष । (१०) अनग्नक-वस्त्र विधि से युक्त वृक्ष। __ वर्तमान में शरीर का संस्थान और संहनन बहुत कमजोर हो गया। अनेक प्रकार के पौष्टिक पदार्थों का सेवन करने पर भी काल के प्रभाव से शारीरिक दुर्बलता बढ़ती जा रही है, लेकिन यौगलिकों के समय यह स्थिति नहीं थी। अन्यान्य दूसरे कारणों के साथ इसका एक यह भी कारण है कि उस समय जो मघांग नामक वृक्ष विशेष थे, उनके फल पुष्टिकारक थे। वे वृक्ष' चन्द्र प्रभा, मनःशिला, सिन्धु वारुणी आदि विशेष प्रकार की मदिरा से युक्त, पत्र, पुष्प
और फलों के निर्यास से घनीभूत, बहुत से वृद्धिकारक द्रव्यों के मिलन से पुष्टिकारक आसव, मधु, मैरेयक, अरिष्टन (मद्य विशेष) दूध जेसी कान्ति वाली प्रशभ, तल्लक, मदिरा सत्ताउ-सौ बार धोने पर भी जिसकी गंध नहीं जाती ऐसी मदिरा, खजूर और द्र.क्षा के सार से युक्त सुपक्व सेलड़ी के रस के समान मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाली, बलवीय की वृद्धि करने वाली मदिरा विशेष से युक्त मद्यांग नामक वृक्ष उस क्षेत्र में सहज रूप से पैदा होते थे। उनका निर्माता कोई ईश्वर नहीं था। समय आने पर वे पकते और उनमें साव भी होता था। उन फलों को उपयोग में लेने से तत्कालोन मनुष्य स्वास्थ्य से सम्पन्न थे।
पशु, पक्षी वृक्षों के फूल-फल खाते हैं और नदी आदि में पानी पीते हैं, इसलिए उनको पात्र की अपेक्षा नहीं होती, लेकिन मनुष्य सभ्यता के लिए या अन्य किसी कारण से पात्र में ही खाते-पीते हैं। आज जिन पद्धतियों से पात्रों का निर्माण होता है, उन तरीकों से आदिवासी मनुष्य परिचित नहीं थे। अतः वे वृक्षों के पात्र व्यवहार में लाते थे। सम्भव है उस समय वृक्षों के पत्र और
१--जहा से चन्दण्यमा मणोसिला...जीवाभि पा० ३४७