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________________ [ ५२ । प्रयोग ठीक ऊँचता है। जो वृक्ष अमुक-अमुक प्रकार के फल देने में समर्थ हो वह कल्प वृक्ष है। नालन्दा हिन्दी शब्द कोष में स्वर्ण के एक वृक्ष का नाम कल्पक-तरु बताया है ; सम्भवतः यह कल्प वृक्ष का ही प्रतीक है। शारीरिक भाष्य टीका में इसे देव लोक का वृक्ष विशेष माना गया है। कल्पना के अनु. रूप फल देने के कारण इसका नाम कल्प वृक्ष हो गया। साधारण जनता में ऐसा भ्रम है कि एक ही वृक्ष सब आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। जिस व्यक्ति को जिस पदार्थ की अपेक्षा होती वह वृक्ष के पास जाकर याचना करता और तत्काल उसे वह वस्तु मिल जाती थी। कई व्यक्तियों की धारणा है कि कोई भी वृक्ष इच्छित पदार्थ देने में समर्थ नहीं थे, लेकिन जिन वृक्षों के अधिष्ठाता देवता होते थे, वे वृक्ष ही हर पदार्थ देते थे। उन वृक्षों के अधिष्ठाता देवों की उपासना करने पर वे वृक्षों के माध्यम से ईप्सित वस्तुएं देते थे। लेकिन यह तथ्य युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। आगमों में ७ और १० प्रकार के वृक्षों का वर्णन मिलता है। वे वृक्ष मिन्न-भिन्न अपेक्षाओं की पूर्ति करने वाले थे। इससे स्पष्ट होता है कि सब वृक्षों का अपना अलग-अलग क्षेत्र था और उस सीमा तक वे अपना कार्य करते थे। स्थानांग' में एक जगह सात प्रकार के वृक्षों का उल्लेख है। वे विमल वाहन कुलकर के समय में थे। उनके फल मनुष्यों की आजीविका के साधन थे। उन वृक्षों में दीप, ज्योतिष्क और त्रुटितांग वृक्षों को नहीं लिया गया है। सम्भवतः उस क्षेत्र में वाद्य और प्रकाश देने वाले वृक्ष नहीं थे। स्थानांग में दूसरी जगह १० प्रकार के वृक्षों का वर्णन है। प्रवचन सारोद्धार और समवायांग में भी १० प्रकार के कल्प वृक्षो का वर्णन है। जीवाभिगम में इन वृक्षों को एकोरुक द्वीप विशेष में बताया है। इन वृक्षों के नाम निम्न प्रकार हैं: १-विमलवाहणे णं कुलगरे सत्तविधा रुक्खा भुवभोगत्ताते हबमागच्छिंसु जहा-मतंगता य भिंगा त्तित्तंगा चेव चित्तरसा होति । मणियंगा य अणियणा सत्तमग्गा कप्परुक्खा य। ठा० ७ सू०६८८ २-स्थानांग ठा० १०। ३-प्रवचन सारोद्धार द्वार १२१ । ४-समवायांग समवाय १० । ५-जीवाभिगम पा० ३४७ ।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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