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[ ५० ] एक ही धातु के हैं। यहाँ एक 'क्त' प्रत्ययान्त है और दूसरा विध्यामक आख्यात का रूप है और 'निक्खम्मं वज्जेज्ज कुसीललिङ्ग' के स्थान पर 'नानरियं करिस्सामि' शपथ करने के रूप में प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। कुशील के स्थान पर यहाँ अनार्य शब्द का उपयोग किया गया है। जिस प्रकार कुशील शब्द का अर्थ यहाँ अनाचीर्ण है उसी प्रकार अनार्य शब्द का भी। अतः यहाँ ये शब्द भावना से साम्यता रखते हैं।
आत्महित चाहने वाला मुनि इस शरीर को अशुचि और अशाश्वत समझ कर छोड़े। जन्म और मरण के बंधनों को छेदकर अपुनरागमन रूप गति को प्राप्त करे।
तं' देहवासं असुई असासयं, सयाचए निच्च हियठ्ठि अप्पा। छिदितु जाइमरणस्स बन्धणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ।। वौद्ध- दिपादको यौं असुचि दुग्गन्धो परिहीरति ।
नानाकुणपपरिपूरो, विस्सवन्तो ततो ततो॥ एतादिसेन कायेन, यो मन्च उण्णमेतवे। परं वा अवजानेय्य, किमन्यत्र अदस्सना । छन्दरागविरत्तो सो, भिक्खु पचाणवा इध ।
अज्मगा अमतं सन्ति, निव्वानपदमच्चुतं । यहाँ अशुचि शब्द के साथ शाब्दिक तुलना है और उपर्युक्त दूसरे विशेषण प्रायः शरीर की अशाश्वतता बतलाने वाले हैं। दूसरे श्लोक में इस प्रकार के शरीर पर मोह करने को अविद्या कहा है, जो कि शरीर की हेयत्व-भावना का बोध कराता है। 'सयाचए निच्च हियहि अप्पा' के साथ इसकी भावाभिव्यक्त्यात्मक समता है। तीसरे श्लोक की 'छिदितु जाइमरणस्स बन्धणं, उवेइ भिक्ख अपुणागमं गई" के साथ भावात्मक समता है। यहाँ राग-द्वेषात्मक बन्धन से मुक्त प्रज्ञावान् को निर्वाण प्राप्त होने का विधान है। आगमोक्त गाथा में जन्म-मरण के बन्धन (राग-द्वेष) को छेद कर अपुनरागमन (निर्वाण) गति को प्राप्त करना कहा गया है। अतः अन्त में दोनों विचार-धाराओं का फलित एक ही है।
१-दशक १०१२१ ३-सुत्तनिपात ११.२०८
२- थेर गाथा ४५३ ४-सुत्तनिपात ११-२०६