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बौद्ध साहित्य में जाति आदि के मद करने वाले को पराभव कहा गया है और पराभव होना मनुष्य के लिये प्रशस्य नहीं है, अतः वह अकरणीय है । यहाँ केवल भावाभिव्यञ्जना रूप तुलना ही नहीं है, जाति आदि शब्दों की शाब्दिक तुलना भी है ।
आगमोक्त गाथा के तीसरे और चौथे चरण "मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्मणरए जे स भिक्खु" की तुलना में निम्नलिखित पथ हैं
यो नाच्चसारी न पच्चसारी, सब्बं अज्जगमा इमं पपा ।
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सो भिक्खु जहाति ओरपारं, उरगो जिणमिव तचं पुराणं ॥ धम्मारामो र धम्मरतो, धम्मं अनुविचिन्तयं ।
२
धम्मं अनुत्सरं भिक्खू, सदूधम्मा न परिहायति ॥
बौद्ध साहित्य के उपर्युक्त पद्यों में भावाभिव्यज्जना की अनुरूपता के साथ साथ धर्म और रत शब्दों की शाब्दिक अभिव्यक्ति भी हुई है। जैन वाङ्मय में प्ररूपित है कि जो आर्यपद अर्थात् धार्मिक पद्यों का उपदेश करता है, धर्म में स्थित रहता है, दूसरों को धर्म में स्थित करता है, प्रत्रजित दशा को प्राप्त कर अनाचारों का निराकरण करता है, हास्य आदि के लिए जो कुतूहुलादि का प्रयोग न करता है - वह मुनि है -
पवेयए । अज्जपयं महामुनी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि निक्खम्मं वज्जेज्ज कुसीललिङ्ग, नयाविहस्स कुहए जे स भिक्खू ।। बौद्ध साहित्य में 'धम्मेठिओ और निक्खम्मं वज्जेज्ज कुसीललिङ्ग' 'की तुलना निम्नांकित प्रकार से है
उत्तिट्ठे ४ नप्पमज्जेय्थ, धम्मं सुचरितं चरे ।
परम्हि च ।।
धम्मचारी सुख सेति, कामं पतामि निरयं, नानरियं करिस्सामि, इन्द पिण्डं
अस्मि लोके उद्धप। दो
अवं सिरो ।
पटिमाहा ||
नप्पमज्जेय्य' उपदेश के रूप में यह दोनों शब्द ष्ठा गतिनिवृत्तौ
"धम्मे ठिओ" के स्थान में यहाँ 'उत्तिट्ठे प्रयोग किया गया है। 'डिओ और उसिद्धि'
१- सुत्तनिपात १-८ २ – धम्मपद भिक्खू० ५ ३ - दशवे ० १० २०
४- धम्मपद लोक व० (- जातक खदिरङ्गार