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[ ४८ ] रसेसु गेध' अकरं अलोलो, अनन्नपोसी सपदानचारी ।
कुले कुले अप्पटिबद्धचित्तो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो॥ यहाँ भावात्मक तुलना के साथ-साथ रस, गृद्धि, अलोल, आदि शाब्दिक तुलना भी है। इसके अतिरिक्त कुले कुले अप्रतिबद्ध, एको चरे, निक्कुहो, निप्पिपासो आदि अनेक शब्द हैं, जो कि जेन संस्कृति से तुलना रखते हैं। ___ आगम वाङमय की एक और गाथा-जो कि नीचे अंकित की गई हैमुनि की परिभाषा इस प्रकार करती है--
न' परं वएज्जासि अयं कुसीले, जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्यपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ।।
अर्थात दमरों के प्रति अपशब्दों का व्यवहार न करे, जिस व्यवहार से दूसरे कुपित हों, ऐमा व्यवहार न करें, प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक-पृथक है ऐसा मानकर अपने आप में उत्कर्ष भावना न लाए-वह मुनि कहलाता है। बौद्ध-साहित्य में इसकी तुलना करने वाले निम्नांकित पद्य हैं
यो चत्तानं समुक्कंसे, परं चमवजानति । यहाँ आत्मा और समुत्कर्ष की शाब्दिक तुलना है, इसके अतिरिक्त एक दूसरा उदाहरण और भी इससे तुलनीय है :
न परो परं निकुबेथ, नातिमध्नेथ कत्थचि नं कश्चि। व्यारोसना पटिघसम्वा, नाबमबम्स दुक्खमिच्छेय्य ॥ यहाँ केवल भावाभिव्यक्त्यात्मक अनुरूपता ही है। जैन श्रमण संस्कृति के विषय में यहाँ और भी पठनीय हैं, जो इस प्रकार है :
न जाइमत्त न य रूवमत्त, न लाभमत्ते न सुएणमत्त । मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्माणरए जे स भिक्खू ।।
सव प्रकार के दंभ को छोड़कर जो धर्मध्यान में रत रहता हो वह मुनि है। बौद्ध श्रमण संस्कृति में इसकी तुलना निम्नांकित पद्यों में है
जातित्थद्धो धनत्थधो, गोत्तत्थरो च यो नरो।
स बाति अतिम ति, तं पराभवतो मुखं । १-सुत्तनिपात ३३१
२- दशव० १०१८ ३-सुत्तनिपात ७-३१।
४-सुत्तनिपात ८-६ ५-दशवे० १.१६
६-सुत्तनिपात ६-१४