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________________ [ ४७ ] पर भावात्मक तुलना में किसी प्रकार का भेद दिखाई नहीं देता । अथवा इसका I एक दूसरा उद्धरण इस प्रकार भी पाया जाता है संगा पमुत्त' अखिलं अनासवं, तं वापि घीरा मुनिं वेदयन्ति । यहाँ संग और मुनि शब्द की शाब्दिक तुलना है। जैन वाङमय मैं सुनित्व की व्याख्या करते हुए कहा है अलोलभिक्खू' न रसेसु गिवे, उछं चरे जीविय नाभिकखे । इचि सककारण पूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू || पर्य है जो किसी भी प्रकार की वस्तुओं में लोल्य नहीं रखे, खाद्य रसों में गृद्धि न रखे, असामुदायिक मिक्षा से जीवन चलाने की आकांक्षा न रखे, ऋद्धि, सत्कार, पूजा, आदि की वांछा न रखे, किसी भी प्रकार का छल न करे - वह मुनि है । बौद्ध साहित्य में "अलोलभिक्खू न रसेसु गिद्धे” की तुलना निम्नलिखित पद्यों में पायी जाती है : - चक्खुहि" नेव लोलरस गामकथाय आवरये सोतं । रसे च नानुगिज्य्य, न च ममायेथ किञ्चि लोकस्मि ।। यहाँ लोल, रस, और गिद्ध की शाब्दिक तुलना के साथ-साथ भावाभिव्यक्त्यात्मक तुलना का विशेष महत्त्व दिखलाया गया है । आगम गाथा का दूसरा चरण 'उच्छं चरे जीविय नाभिकख' के अनुरूप होने वाली गाथा बौद्ध साहित्य में निम्न प्रकार से अभिव्यक्त हुई है, जो कि केवल भावात्मक तुलना के अनुरूप है :-- अल्लं सुक्खं च भुब्जन्तो, न बालहं सुहितो सिया । बौद्ध साहित्य का एक और उद्धरण नीचे उद्धृत किया जा रहा है, जो कि अधिकांश अंशों में आगम गाथा से तुलनीय है :निल्लोलुपो" निक्कुsो निष्पिपासो, निम्मक्खो निदुधन्तकसाबमोहो | निरासयो सब्बलोके भवित्वा, एको चरे खग्गविसाणकप्पो || १- सुत्तनिपात १२-६ २ - दशवे ० ४ -- जातक भाग ३ सक जातक ० १०११७ ३ - सुत्तनिपात ५२-८ ५-सुत्तनिपात ३-२२
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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