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[४ ] यहाँ हस्त-संयत, पाद-सयत, और वाक्-संयन, अध्यात्मरत और सुसमाहित यादि शब्दों के साथ शाब्दिक तुलना है। आगमोक्त गाथा के पूर्वाध के अंतिमांश 'संजई दिए' भी निम्नोक्त पद्यों में समाविष्ट है :
चक्खुना' संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो। घाणेन संवरो साधु, साधु जिताय संबरो॥
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संबरो। यहाँ आगमोक्त गाथा की तरह समष्टि रूप से न बतला कर व्यष्टि रूप से बतलाया गया है फिर भी ये पद्य "संजई दिए" पाठ के अनुरूप ही है। भागमोक्त गाथा के चौथे चरण "सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू की तुलना में निम्नोक्त पद्य है :
पुब्बापरब्यूः अत्थब्यू, निरुत्तिपदकोविदो।
सुमाहीतच गण्हाति, अत्यंचोपपरिक्खति ।। यहाँ भावात्मक तुलना के साथ-साथ अर्थ शब्द की शाब्दिक तुलना भी है । आगम साहित्य में मुनि के लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए कहा है :
उवहिन्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंच्छं पुलनिप्पुलाए। कयविकायसन्निहिओ विरए, सव्वसनावगए य जेस भिक्खू ।।
अर्थात् जो वस्त्रादि उपधि ( उपकरणों) में मूच्छित न हो, जो भोजनादि सामग्री में गृद्ध न हो, अज्ञात कुलों में भिक्षाथ पर्यटन करता हो, संयम को असार करने वाले दोषों से परे हो, क्रय-विक्रय आदि क्रियाओं से विरत हो और सब प्रकार के सङ्गों से रहित हो-वह मुनि कहलाता है।
सौगत साहित्य में उपर्युक्त गाथा के "कयविक्कयसंन्निहिओ विरए" और “सब्वसंगावगए य जे स भिक्खू" इन दो चरणों की तुलना निम्न प्रकार से व्यवहन हुई हैपुत्तच दार पितरब्ध मातरं, धन्ना धयानि च बन्धवानि । हित्वा न कामानि यथोधिकानि, एगो घरे खगाविसाणकप्पो।।
यहाँ किसी भी शब्द के साथ तुलना नहीं हुई है। किन्तु गहराई से देखने १-धम्मपद भिक्ख. श्लोक १-२॥
२-थेर० १.३१ ३-दशवे० १११६
४-सुत्तनिपात०३-२६