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विरक्मति' की तुलना बहुत ही नैकट्य सम्प्राप्त है। जब किसी एक भ्रमण के ऊपर परीषहों का दीर गुजरता है तब वह क्या करे ? इस विषय में जेन वाङमय में निम्नलिखित पथ अनुशीलनीय है
अभिभूय' कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं 1 वित्त्जाईमरणं महत्भयं तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ||
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अर्थात् क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर आदि अनेक प्रकार के परीषहो के आने पर उनपर विजय प्राप्त करे और संसार वीथी से अपने आप को बचाए । जन्म और मरण के महाभय को समककर श्रामण्य पथ (तपस्या) का अनुसरण करे । बौद्ध साहित्य की निम्नांकित गाथा इसके साथ तुलनीय हैयो वापि सोते अथवापि उन्हे, वातातपे डंससिरिसपे च । खुदं पिपासं अभिभूय सब्बं रतिदिवं यो सततं नियुतो । कालागतं च न हापेति अत्थं, सो मे मनापो निवसे वतम्हि ||
आगमोक्त गाथा में यद्यपि परीषहों का समष्टि रूप ही दिया गया है किन्तु दूसरे स्थानों में ये व्यष्टि रूप से भी उपलब्ध होते हैं । यहाँ दोनों विचारधाराओं का सारांश एक ही है । अर्थात् चाहे मौत भी सामने आ खड़ी हो, मुनि अपनी श्रामण्य भावना से च्युत न हो, इम भावाभिव्यक्त्यात्मक तुलना के साथ-साथ "अभिभूय" शब्द की शाब्दिक तुलना भी है। श्रमण संस्कृति के विषय में आगम वाणी के अगले पद्य निम्न प्रकार हैं :
हत्थ संज पायसंजए, बायसंजर संजई दिए । अप्पर सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥ अर्थात् जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्मरत है, जो भली प्रकार से समाधिस्थ तथा सूत्र व अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है- वह मुनि है । सौगत साहित्य में उपर्युक्त गाथा से समानता रखने वाले पद्य इस प्रकार से व्यक्त हुए हैं :--
हत्थ सन्मतो " पादसव्यतो, वाचाय सम्मतो सन्मतुत्तमो । अन्तरतो समाहितो, एको संतुसितो तमाहु भिक्खु ॥
१ -- दशवे० १०११४
३ -- उत्तराध्ययन २ । ५ - धम्मपद, भिक्खूनग्ग श्लोक ३
- जातक भा• ३, जातक सं० ३८२
- दशवे ०
१०११५
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