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________________ [ ४४ 1 व्युत्सर्ग दशा में परीषहादि उत्पन्न होने पर मुनि किस प्रकार रहे। इस सम्बन्ध की चर्चा आगम साहित्य में इस प्रकार है। असई बोसठ्ठचत्तदेहे, अकुठे व हए. व लुसिए वा। पुढवि समे मुणी हवेज्जा, अनियाणे अकोउहल्ले य जे.स मिक्खू॥ अर्थात् मुनि पुनः पुनः शरीर का व्युत्सर्ग करे, आक्रोश व मार पीट करने पर पृथ्वी की ज्यों सहनशील हो, निदान न करे, कौतूहल-ख्याल-तमाशबीन न हो। सौगत साहित्य में भी इन विचारों के अनुरूप कुछ विचार निम्नाकित प्रकार से है सव्वसम्योजनं छेस्वा, यो वे न परितस्सति । सङ्गातिगं विसपुतं, तमहं बमि बाह्मणं । अकोसं बधबन्धञ्च, अदुछो यो तितिक्खति । खन्तिबलं बलानीकं, तमहं भूमि बाह्मणं ।। यहाँ ब्राह्मण शब्द श्रमण विशेष के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। इन दोनों गाथाओं के जो 'सबसनोजनं छेत्वा' 'सङ्गातिगं विसअत्तं' और 'यो वे न परितस्सति' पद्य है, ये पद्य 'वोमठ्चत्तदेहे' और 'पुढवि समे मुणीं हवेज्जा' की भावना के समीप हैं और 'अक्कोसं बधवन्धञ्च, अदुहो या तितिक्खति' ये पद्य 'अकुठे व हए व सिए वा' और 'अनियाणे अकोउहल्ले य जे स भिक्खू' की भावना के द्योतक हैं। क्योंकि अदुष्टमन अर्थात् जिस व्यक्ति का मन किसी भी परिस्थिति में उद्वेलित न हो और संतुलित रहता हो वही मनुष्य अनिदानकारी व अतमाशबीन होता है। आगमोक्त गाथा का समग्र प्रतिबिम्ब बौद्ध साहित्य में दो पद्यों में प्रति बम्बित हुआ है। वह उद्धरण निम्न प्रकार से है-- 'पठवीसमो नो विरुज्मति, इन्दखीलूपमो ताहि सुब्वतो।' अर्थात् इन्द्रकील की ज्यों अचल रहने वाला ( सुवती ) मुनि अनेक प्रकार की विपत्ति व बाधाओं को पृथ्वी की भांति सह लेता है। यहाँ 'पुठवीसमो नो १-दशवे० १११३ २-धम्मपद ब्राह्मण गा० १५,१७ ३-अलंकतो चेपि समं चरेश्य, सन्तो दन्तो नियतो बह्मचारी। सम्वेसु भूतेषु निधाय दण्ड, सो बामणो सो समणो स भिक्खू ॥ धम्मपद दण्ड० गा० १४ ४-धम्मपद अर्हन्तवर्ग श्लो०६
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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