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Em] भागमोक गाथा के चर्य चरण “समसुदुक्खसरेय जे स मिक्खू" की तुलना में निम्नलिखित पद्य तुलनीय है
पनुज्ज' दुखेन सुखं अनिन्द, सुखेन वा दुखमयसाहि। ज्मयत्य सन्तो अमिनिबुतता, सुखे पदुक्खे च भवन्ति तुल्या ।।
यहाँ मावात्मक दलना के साथ-साथ सुख और दुख की शाब्दिक तुलना भी है। आगम साहित्य में श्रमण संस्कृति के विषय में उपर्युक्त गाथा से आगे की गाथा इस प्रकार है
पडिम पडिबज्जिया मसाणे, नो भायए भयभेरवाई दिस्स। विविहगुणतवोरए य निच्च, न सरीरं चामिकखई जे स भिक्खू ।।
अर्थात्-जो विशिष्ट साधना संलग्न श्मशान आदि में ठहरा हुआ मुनि अत्यन्त भयप्रद दृश्यों को देखकर न डरता हो, विविध गुणों और तपों में रत हो और शरीर की आकांक्षा न करता हा-वह मुनि है। सौगत साहित्य में इसकी तुलना में दो गाथाएं निम्नोक्त प्रकार से प्रतिपादित हुई हैं, जो कि शब्दों व भावों से आगमोक्त गाथा के बहुत नजदीक हैं
भिक्खुनो' विजिगुच्छतो, भजतो रिचमासनं । रुक्खमूलं सुसानं वा, पब्बतानं गुहासु वा॥ उच्चावचेस सयनेसु कीवन्तो तत्थ भेरवा ।
ये हि भिक्खु न वेधेय्य निग्धोसे सयनासने ॥ उक्त गाथाओं में श्मशान व मेरव यह शाब्दिक तुलना बहुत ही उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त दोनों गाथाओं का अवशिष्टांश जो कि भावों की दृष्टि से तुल्य है, वह आगमोक्त गाथा के बहुत निकट है, ऐसा मानना चाहिये। आगमोक्त गाथा का पूर्वार्ध 'पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, नो भायए भयमेरवाई बिस्स' की तुलना में एक दूसरा उदाहरण और भी निम्नोक्त प्रकार
एक चरन्तं मुनिनं अप्पमत्तं, निंदापसंसासु अवेधमान ।
सीईव सहेसु असन्तसन्तं, तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ति । (१) जातक भाग ३ एकराज जातक (३) सुत्तनिपात ५४४,५ (२) दशवै० १११२
(४) सुचनियाव १७