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________________ [ ४२ ] न' च कस्थिता सिया भिक्खु, न च वार्च पयुतं मासेय्य । पागन्मियं न सिक्खेग्य, कथं विग्गाहिकं न कवयेय्य। आगमोक्त गाथा का प्रथम चरण न य बुग्गहियं कहं कहेज्जा' की और बौद्ध साहित्य में प्रतिपादित गाथा का चतुर्थ चरण 'कथं विम्गाहिकं न कथयेण्य' की अक्षरशः तुलना है। इसके अतिरिक्त शेष पद्य भी आगमोक्त गाथा की मानना का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। आगमोक्त दूसरे चरण "न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते" और 'उपसंते अविहेड़ए जे स भिक्खू' चौथे चरण से तुलना रखनेवाले बोर साहित्य के निम्नोक्त पद्य भी अनुशीलनीय है। उपसन्तो' उपरतो, मन्वभाणी अनुदतो। धुनाति पापके धम्मे. दुमपत्तं व मालुतो। यहाँ उपसन्त शब्द की शाब्दिक तुलना है और निहुइदिए का अर्थ अनुद्धत इन्द्रिय होता है। अतः यह भी उसके अनुरूप ही है तथा 'संजमधुवजोगजुत्ते' यह एक ही पद्य उपयुक्त दोनों बौद्ध गाथाओं का प्रातिनिध्य करने के लिये यथेष्ट हैं। इस प्रकार आगम साहित्य में श्रमण संस्कृति के विषय में प्रतिपादित अगली गाथा इस प्रकार है : जो' सहा हु गामकटंए, अक्कोसपहारतजणाओ य। भयभेरवसहसप्पहासे, समसुदुक्खसहे यजे स मिक्लू॥ अर्थात् कांटे के समान चुभनेवाले इन्द्रिय-विषयों को सहन करे, भाकोश, प्रहार, तर्जना आदि को सहन करे, भूतप्रेतात्मादि के अत्यन्त भावोत्पादक शब्द युक्त अट्टहासों को सहन करे तथा सुख और दुःख में समभावना रखे वह सुनि है। उपर्युक्त आगम गाथा के दूसरे चरण "अक्कोसप्रहारतज्जणाओ " की तुलना में बौद्ध साहित्य में निम्नोक्त पद्य अभिव्यक्त हुए है अक्कोच्छि म अवधि में अजिनि में अहासि मे। ये न उपनयन्ति, धेरै तेसूपसम्मति॥ यहाँ भावार्थ के अतिरिक्त आक्रोश और हास की शाब्दिक तुलना भी है। आक्रोशादि प्रतिकार करने के निषेध से सहिष्णुत्व अपने आप ही गम्ब है तथा १-सुत्तनिपात ५२११६ २-थेर गाथा प्रथम निपात गा० ५ ३-दशवकालिक १०१११ ४-जातक भाग ३ वीधिति बालक
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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