________________
[ ४१ ] लब्ध होता है कि मुनि विविध अशन, पान, खादिम स्वादिमादि को प्राप्त कर अपने साधार्मिक बन्धुओं को आमन्त्रित कर पीछे खाए। इस प्रकार भोजन कर जो स्वाध्याय में अनुरत रहता है वह भिक्षु है
तहेव' असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लमिचर। छंदिय साहम्मियाण मुंजे, भोच्चा सज्झायरए जेस मिक्खू॥
तथागत के साहित्य में एक जगह मनुष्य के पराभवों का उल्लेख करते हुए भी ऐसा कहा है। अर्थात् विविध प्रकार की भोजन सामग्री प्राप्त कर जो अकेला खाता है उसे पराभव कहा गया है।
एको भुजति सादनि, तं पराभवतो मुखं। __ आगमोक्त गाथा में जहाँ अपने साधार्मिकों को आमन्त्रित कर भोजन करनेका विधान है वही तथागत के साहित्य में अकेले के भोजन करने को पराभव बतलाया है, अर्थात् अकेले भोजन करना उसकी संस्कृति के अनुरूप नहीं है । अतः अन्ततः दोनो की भावनाओं का फलित एक ही है। आमन्त्रण, मनुहार आदि वहाँ ही होती है जहाँ पारस्परिक प्रेम हो, वात्सल्य व प्यार का वाता. वरण हो। मानना चाहिये कि प्रेम, वात्सल्य आदि कारण हैं और आमन्त्रण आदि उसके कार्य हैं। अतः उपर्युक्त विचारों के अतिरिक्त "छंदिय साहम्मियाण मुंजे" इसकी पुष्टि करनेवाले विचार बौद्ध साहित्य में और भी पाए जाते हैं। यह निम्नोक्त गाथा से स्पष्ट विदित होता है :
नानाकुला' पव्वजिता, नाना जनपदे हि च । अभ्यम पियायन्ति, तेन मे समणा पिया। जैनागमों में मुनि की संस्कृति बतलाते हुए कहा हैन*य बुग्गहियं कहं कहेजा, न यकुप्पे निहुइन्दिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्ते, उपसते अविहेडए जे स मिक्खू ।।
अर्थात् विग्रह पैदा करने वाली कथा न करे, क्रोध न करे, अपनी इन्द्रियों को प्रशान्त रखे, संयम में योगों को स्थिर रखे, आत्मा को शांत रखे और दूसरों का तिरस्कार न करे, वह मुनि है। बौद्ध साहित्य में उपर्युक्त पद्यों की तुलना करनेवाले पद्य निम्न प्रकार से निरूपित हुए है :
१-दशवै० १९ २-सुत्तनिपात ६-१२।
३-थेरी० २८५ ४-दशवे. ११.