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________________ [ ४० ] निर्मन्य प्रवचन में कहा है-जो सम्यग् दृष्टि है, अमूढ़ है, ज्ञान दर्शन चारित्र, तप आदि का अस्तित्व स्वीकार करता है, पूर्व कर्मों को तपस्या के द्वारा नाश करता है और जिसके मन, वचन काया-ये तीनो संवृत्त है, वह भिक्षु है। सम्मदिछी' सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे य । तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ।। उपर्युक्त गाथा की तुलना में मौगत साहित्य में निम्नोक्त पद्य पाए जाते हैं। प्रथम चरण “सम्मदिछी सया अमूढे" के अनुरूप बजकच बजतो मत्वा, अवज्जच अवज्जतो। सम्मादिद्विसमादाना, सत्ता गच्छन्ति सुग्गति ।। इसके अतिरिक्त चतुर्थ पद्य 'मणवयकायसुसंबुडे" के साथ समता रखनेवाले पद्य इस प्रकार परिस्फुट हुए हैं कायेन' संवुता धीरा, अथो वाचाय संवुता। मनसा संवुता धीरा, ते वे सुपरिसंवुता ।। जेन वाङ्मय में कहा है कि विभिन्न प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिमादि द्रव्य प्राप्त होने पर कल या परमो काम आयेगा, इस अध्यवसाय से जो संचय नहीं करता वह मुनि है। तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू॥ उपर्युक्त गाथा के अनुरूप सौगत साहित्य में निम्नलिखित गाथा प्रतिपादित की गई है जो कि आगम गाथा से अधिकांशतः तुलना रखती है -- अन्नानमथो पानानं, खादनीयानमथोपि वत्थानं । लद्धा न सन्निधि कयिरा, न च परित्तसे तानि अलभमानो। - यहाँ आगमोक्त व सौगत साहित्य में प्रतिपादित इन दोनों गाथाओं की सन्निधि नहीं करने का जो मूल ध्येय है, वह तो एक है ही, इसके अतिरिक्त अन्न, पान, खाद आदि की शान्दिक तुलना भी है। जैन वामय में यह भी उप१-दशवै० १०७ २-धम्मपद निरय० १४ ३-धम्मपद क्रोध० गा०१४ ४- दशवे० १०० ५.-सुत्तनिपात ५२।१०
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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