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[ ३६ ] रोहय' नायपुत्तवयणे, अत्तसने मन्नेव पिकाए।
पंच य फासे महत्वयाई, पंचासक्संवरे जे स मिला " इस गाथा के प्रथम चरण 'रोइयं नायपुववयणे' की तुलना बौद्ध साहित्य में निम्न प्रकार से अभिव्यक्त हुई हैयो' वे गहवं वचनज धोरो, वसे च तम्हि जनयेथ पेमं । सो भत्तिमा नाम च होति पण्डितो, बत्वा च धम्मेसु विससि अस्स ॥
यहाँ 'गल्वं वचनम्जुधीरो' और 'रोइय नायपुत्तवयणे' की समानोक्ति है। इसके अतिरिक्त भावसमानोक्ति तो प्रायः सम्पूर्ण गाथा से है ही। उपयुक्त आगम साहित्य की गाथा का दूसरा पद्य जो 'अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए' है, उसके समान कोटि की गाथा बौद्ध साहित्य में इस प्रकार व्यक्त की गई है
'बत्तानं उपमं करवा न हन्नेय्य न घातये' यहाँ अत्त शब्द की तुलना भी है- क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को छोड़े, बुद्ध वचनों पर स्थिर हो, रोप्य रजत आदि से रहितअधन हो और सर्वथा गृहयोग को परित्याग करने वाला हो, वह मुनि कहलाता है।
पत्तारि' वमे सया कसाए, धुपयोगी हवेज बुद्धवयणे। अहणे निजायस्वरयए, गिहिजोगं परिवजए जेस मिक्खू ॥ तथागत के साहित्य में इस गाथा के अमुरूप निम्नोक गाथा व्यक्त की गई हैकोधं बहे' विष्पजहेय्य मान, सम्मोजनं सब्वमतिकमेय्य ।
बामरूपस्मि असलमा, अकिचनं नानुतपन्ति दुक्खा ॥ उपयुक्त पद्यों में तुलना की दृष्टि से शाब्दिक व भावाभिव्यञ्जना बगायों में व्यक्त हुई है। जेन वाङमय में क्रोधादिक को कषायगत मानकर समष्टि के रूप में ग्रहण किया है और यहाँ व्यष्टि के रूप में। इसके अतिरिक "सम्मो जनं सबमविक्कमेय्य" गृहयोग के परित्याग स्वरूप लिया गया है। ऐसा मानना चाहिये और अकिचन में केवल शब्द भेद ही है।
१-दरावे. १० ३-दरावे. १०१६
२-येर०३७. ४-धम्मपद कोष मा.१