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________________ [३२] सकता है, पर नहीं, पाप की आलोचना" का मर्म समाज में ही प्रकट हो भावभूमि व क्रियाभूमि का समन्वय उसके लिए अनिवार्य है । इससे वैयक्तिक मोक्ष- साधना का विरोध नहीं है। 'समिति मर्यादा' साधु के लिए भी है, जो प्रवृत्ति मूलक है और प्रवृत्ति-निवृत्ति समन्वित रूप में ही समष्टिभाव की रक्षा की जा सकती है। जैन-प्रणीत अहिंसा करुणामूलक है या नहीं, इसके जाते हुए वह उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है, जो कि भगवान् महावीर गर्भ में तक हिलते डुलते न थे, कहीं कष्ट न हो। यह उदाहरण तो करुणा-मूलकता का ही समर्थन करता है, क्योंकि कष्ट न देने की भावना का करुणा के साथ सीधा सम्बन्ध है । "जे अप्पा से परमप्पा" की भाव-रक्षा करुणा के बिना हो नहीं सकती। तभी तो भगवान् ने " सव्व जग जीव रक्खण दयडया ए भगवया सकहियं पवयण”दया व करुणा का प्रवचन- किया था। दया "भगवति" तभी तो है, जब वह करुणावान् है । पर दुर्भाग्य से यह करुणा स्रोत आज कर्मकांड की काई से ऐसा ढँक गया है कि मानव के लिए वह उपलब्ध हो नहीं पा रहा है और केवल नकारात्मक रूप में ही पशु-पक्षी कीट-पतंग की स्पर्श कर जाता है । जंतु - समाज ने मानव समाज को तो साधको के हृदय में से हटा दिया है, पर स्वयं भी " न मारो" से ही केवल सुरक्षित है, "बचाओ" की कृति से रक्षित नहीं है । व्याध द्वारा हुए क्रौंच वध ने आदि महाकवि के हृदय में प्रेरणासृजन किया था। यज्ञ में होनेवालो क्रूर हिंसा को देखकर और उसे तत्त्वज्ञान से आवेष्टित पाकर भगवान् महावीर और बुद्ध का हृदय तिलमिला उठा और और अहिंसा का सन्देश उन्होने दिया । वह करुणा में उत्पन्न तत्त्वज्ञान यदि अपनी मूल प्रेरणा को ही छोड़ दे, तो तत्त्वज्ञान शुष्क रह जाएगा । अहिसा करुणाधारित न हो, तो वह इतनी व्यापक हो नहीं सकती। अतः इस करुणा के स्रोत को न सिर्फ जीवित करना होगा, अपितु उसे व्यापक भी बनाना होगा, क्योंकि उस समय यज्ञ में पशु-हिंसा होती थी, आज मत्ता स्वार्थ-लोभ, असमता के द्वारा मानव-हिंसा होती है और अणुबम तो सारी मानव जाति को ही निगलने के लिये तैयार बैठा है । इसीलिए मानव पुकार रहा है कि तुम्हारी जीवरक्षा व पशुरक्षा से मेरा विरोध नहीं है, न ही जीव-जन्तु मेरी रक्षा के मार्ग में बाधक है। जैन दर्शन में सम्यकादि तत्त्वों के साथ स्याद्वाद का भी विशिष्ट स्थान सम्बन्ध के वाद में न अक्सर कहा जाता है क्योंकि मां को उससे
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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