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[ १] इसीलिए केशरिक ने कहा है कि 'इट् प्लेसण एफैसिस बयान पर्सनल साहले शन (बट) दिस साल्वेसन केन बी अकापलिस्ड ओन्ली बाइ सोशल सिरेयन्स फॉर अदर्स।' स्पष्ट है कि बेयक्तिक तप, मोक्ष-सापना, संयम बादि से वो विरोध है ही नहीं, लेकिन जहाँ पद-पद पर अहिंसा का ध्यान है, वहाँ चोरी का अर्थात् समाज का भी ख्याल रखना लाजिमी होता है और समाज का ख्याल रखने का मतलब ही है कि आप सामाजिकता से अछूते नहीं रह सकते। समाज-धर्म को छोड़ नहीं सकते। 'निग्रंथ रागद्वेष से अलिप्त रहता है या नहीं, इसकी परीक्षा समाज में ही होगी और तवे सूरा अणगारा' के अनुसार तपोधर्म का विकास भी समाज में ही हो सकता है।
शंकराचार्य की "दानं संविभागः" उति के अनुरूप जेनों में भी "असंविभागी नहु तस्स मुख्खौ” उक्ति प्रचलित हैं। इस उक्ति को हम बहुत सीमित भी रख सकते हैं, व्यापक भी बना सकते हैं। पर सीमित रखने से वह सत्वहीन बन जाएगी और व्यापक बनाने से पुरुषार्थयुक्त-जैसे भूदान में शंकराचार्य की उक्त उक्ति को लेकर विनोबाजी ने उसमें क्रांतित्व ला दिया। "प्राप्त सामग्री का समविभाजन केवल एक या कुछ व्यक्ति तक ही मर्यादित नहीं माना जा सकता। अतः जैन दर्शन का "समता" तत्त्व इस तरह जब "समविभाजन के साथ आ जाता है, तो कोई आश्चर्य नहीं कि उसमें से सामाजिक एवं अर्थशास्त्रीय क्रांतितत्त्व प्रकट हो, बशर्ते कि इन तत्व की परिणति कार्यरूप में हम कर सकें। सम-विभाजन के बिना तो मुक्ति में भी रोक लगा दी गयी है। तब सम-विभाजन का कार्यक्रम, जो सेवा से संलग्न हो, समाज में ही अमल में आ सकता है और भगवान महावीर का इसमें अनुमोदन भी रहा है। गौतम से सम्बाद में भगवान से पूछा गया कि सेवा और मक्ति को अलग अलग समय न दिया जा सके, तो क्या करें? तब भगवान ने उत्तर दिया कि "सेवा वाला धन्य है। मेरी भक्ति से दोनों की सेवा श्रेयस्कर है।" रलकरंड भावकाचार में आचार्य सामंत भद्र दारा गृहस्थ से चार बंग वैयक्तिक, तो चार सामाजिक अंग भी बताये गये है, जो इसी तथ्य का समर्थन करते हैं। तीन गुणवतों में से “दिगवत" में सार्वभौम अनाक्रमण वृत्ति का स्वीकार इसी बात की व्याख्या करता है। जेन दर्शन मोक्ष का दर्शन वो है, पर "मोक्ष का पुरुषार्थ' यदि "अहिंसा" में है, तो अहिंसा समाज शास्त्रीय रूप से विच्छिन्न नहीं हो सकती, फलतः अर्थ और काम रूपी पुरुषार्थ से भी विच्छिन्न नहीं हो सकती। “मेति मरसु कपए" को प्रकट रूप तभी मिल सकता है, जब समाज से सम्पर्क रहे। “पापी की