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________________ [३०] मतलब यही होता है कि हम कर्मकांड को सीमा पर पहुँचाकर एकांगिता में ही डूब गये हैं यह तो प्राचीन काल के हस्तितापस तपस्वी के समान उदाहरण हो जाता है, जिसके अनुसार 'फूल-फलों में तो हिंसा अधिक हो जाती है, क्योंकि ज्यादा संख्या में जन्तु मरते हैं, अतः कम संख्या की दृष्टि से हाथी हत्या समर्थनीय है । 'इसी पर श्री अमर मुनिजी ने कहा है कि जीव-गणना द्वारा हिंसा-अहिंसा आंकना जैन धर्म नहीं है। श्री महावीर स्वामी ने तो यह सब अनुचित माना ही था और द्वेषहीनता पर ही वे जोर देते थे। जिस सूक्ष्म-चिंतन से पुरुषार्थ होता हो और विषय की स्पष्टता होती हो, वह तो उचित है, लेकिन जिस सूक्ष्मता के कारण जड़ता और कर्मकांड बढ़ता हो, वह उचित नहीं होता है। उदाहरणार्थ, खेती से परहेज हिंसा के आधार पर किया जाता है या कुआं खोदने से भी एतराज किया जाता है एवं उन्हें 'स्फोट कर्म' तक भी कभी कह दिया जाता है। दूसरी ओर, उसी भूमि कूप से उत्पन्न अन्न-जल हम ग्रहण करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। यह व्यवहार 'न करो, न कराओ ओर न अनुमोदना दो' की सीख से विपरीत है, क्योंकि दशवेकालिक सूत्र में या अन्यत्र व्यसत्य-हिंसा आदि का 'अनुमोदन' भी न देने की जो बात कही गई है, उसका सीधा-साधा अर्थ है, उस पाप में हम भी हिस्सेदार न बनें जिसे हम पाप मानते हैं। मैं घूम देना तो पाप मानूँ परन्तु घूस देकर ली गई चीज ले लूँ, भले ही औरों ने वह घूस दी हो - ऐसी ही यह बात हो जाती है । 'हमने हिंसा नहीं की या हमारे लिए नहीं की गई,' इतना काफी नहीं होता है, जब कि वह हिंसा सामाजिक अन्याय और असत्य के रूप में प्रकट होती है। स्पेगेल वर्ग फ्रेडरिक ने कहा है कि जैन धर्मानुसार 'मैन इज टोटली रिस्पान्सीबल फॉर हिमसेल्फ एन्ड पायली रिस्पान्सीबल फॉर अदर्स' । यह, उन्हीं के शब्दों में, 'डाक्ट्रीन आफ इनडायरेक्ट रिस्पान्सिबिलिटी विथ इट्स सोशल इम्प्लीकेशन्स अँड कन्ट्रोल्स' हो जाता है, जो जैन धर्म-सम्मत ही है। तब 'स्फोट कर्म' कहाँ है व कहाँ नहीं है, इसका विवेक करना जरूरी हो जाता है। आज हमारे कहने से, हमारे रक्षणार्थ अणुबम का परीक्षण यदि जमीन में किया जाता है, जो कि करना अनिवार्य है, तो दरअसल वह महा स्फोट कर्म हो जाता है एवं हमारे रक्षणार्थ वह है, तो हम भी उसके लिए जिम्मेवार बन जाते हैं। तब 'न करो, न कराओ, न अनुमोदना दो' का सारा मर्म ही खत्म हो जाता है । इसलिए जरूरी है कि हम सामाजिकता के तत्व को उचित स्थान दें। अहिंसा का सामाजिक 'अप्लीकेशन' जैन दर्शन के विपरीत भी नहीं है,
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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