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[२६] श्री सन्तबालजी ने कहा है, सत्यमाषा हिंसा रहित हो तो बोलें, अन्यथा नहीं।' किसी को काना-कूबड़ा-कोदी कह देनेवाला 'सत्य भाषणं' यदि यहाँ अभिप्रेत हो, तो चिंता नहीं, पर उस अर्थ को खींचकर सत्य स्थिति से भी यदि मुंह मोड़ लिया जाय, तो वह सत्य का अपलाप बनकर अहिंसा को भी गौण बना देगा। गाय को बचाने के लिये कसाई से हम कुछ कहें ही नहीं, यह जहाँ हो सकता है, वह यह भी तो हो सकता है कि हम यह कहकर निर्भयता बताएँ कि "मुझे मालूम है, पर मैं नहीं बताऊँगा, तू चाहे जो कर ले।" यह निर्भयता-मूलक सत्य जैन-अहिंसा के विपरीत नहीं। अहिंसा में अभयदान गृहीत है ही। अतः सत्य व अहिंसा, दोनों में स्थायी तत्व बन जाता है इसी अभय की साधना, अपने को व्यापक बनाने से, समाज के साथ रखने से और लोकपक्ष को संभालने से होती है।
नेन-विचार की अहिंसा में जो एकांगिता आ गयी है, वह उसके सूक्ष्म चिंतन के कारण नहीं, इस सत्य-अहिंसा की जोड़ी को तोड़ने से आयी है, फलतः एक और कर्मकाण्ड का अत्यधिक प्रभाव बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर अहिंसा कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि की रक्षा तक ही सीमित हो गयी है। जेन-संस्कृति के यह विपरीत बात हो जाती है, क्योंकि फिर 'जैन धर्मानुसार गुलामी हिंसा है' कहना या श्रमण (जैन) संस्कृति को 'साम्यवादी" बताना या 'साम्यस्थित कहना उसमें नहीं बैठ सकते। इंद्रिय-विजय समाज में ही हो सकती हैं, याने उसकी परीक्षा व्यवहार क्षेत्र में रहकर ही हो सकती है। साम्य-साधना तो स्पष्ट ही सामाजिक हो जाती है। 'समता-अमेदावस्था जैन धर्म का यदि आधारतत्व' है, तो ऐसी अहिंसा, जो उस अभेदावस्था का आवाहन करती है, एकांगी रह नहीं सकती। इसीलिये यदि उसे पुरुषार्थी बनाना है, तो उसे व्यापक भी बनाना ही होगा। जीव ( पशु-पक्षी) की दया तक ही सीमित रखना तो उसका सत्वहरण ही है। यह स्वयं महावीर स्वामी की जीवन-शिक्षा के विपरीत है, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन से ही यह उदाहरण प्रकट कर दिया था कि हिंसा, क्रोध, संघर्ष के बीच रहकर ही, उससे प्रेमपूर्ण सामना ही वे अपना काम करते रहे। उस महावीर की अहिंसा को सीमित व संकुचित बना डालना हमारी श्रद्धा को भले ही संतुष्ट कर दे, उनके प्रति वह न्याय नहीं हो सकता। अहिंसा को अतिसीमा पर पहुंचा देने का मतलब होता है, उसके 'पुरुषार्थ को सिद्ध करना। लेकिन जब भीमर यह कहते हैं कि 'जेनों में अहिंसा अतिसीमा पर पहुँचा दी गई है', सो उनका और अन्य लोगों का भी