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________________ [ ३३ ) है, जिसपर आरोप है कि वह अर्धसत्यों के पास लाकर पटक देता है, जबकि सीधे सादे शब्दों में इसका उत्तर दिया गया है कि "यह बौद्धिक अहिंसा है।" बौधिक अहिंसा आज के युग में अति आवश्यक कर्तव्य है, क्योंकि एक जमाने में जैसे शस्त्र व सत्ता के आधार पर तत्वज्ञान पनपते थे, वैसे ही आज हिंसा बैचारिकता एवं तत्त्वज्ञान के आधार पर पनप रही है। दरअसल कहां तत्त्वविचार समास होता है एवं कहाँ हिंसा शुरू होती है, पता ही नहीं चलता। उदाहरणार्थ साम्यवाद का तत्त्वज्ञान हिंसा आवश्यक नहीं मानता, फिर भी दोनों साथ-साथ ही चलने लगे हैं। धार्मिक-विचार आदि भी पहले महापुरुषों के आधार से प्रकट होते है, फिर पंथ-सम्प्रदाय और.उनकी चोखटों में आबद्ध होकर बौद्धिक हिंसा का रूप ले लेते हैं। अतः अहिंसक बुद्धि या बौद्धिक अहिंसा आज आवश्यक हो गई है और जो 'स्याद्वाद' बौद्धिक अहिंसा का सन्देश देता है, उसके सामने तो चुनौती ही उपस्थित है कि वह वैचारिक हिंसा की राह बंद करने में अग्रसर हो। अनेकान्तवाद जेन दर्शन का प्राण इसलिए है कि उसमें सर्व संग्राहकता है, बौद्धिक स्वतन्त्रता है। तब आपस में भी समन्वय से क्यों भयभीतता उत्पन्न होती है, क्यों साम्प्रदायिकता का जोर चलता है, यह सब विद्वानों के लिए विचारणीय प्रश्न है। एक तरफ उसमें "कालवाद, स्वभाववाद, कर्मवाद, पुरुषार्थवाद, नियतिवाद और समन्वयवाद का भी समावेश है, तो दूसरी ओर ऐसी असहिष्णुता पनप जाती है कि करुणा उसमें से खो जाती है। जैन धर्म की लोक-संग्राहकता के लिए बाधक बातों में अन्य बातों के साथ-साथ मुनिश्री नथमलजी ने "सूक्ष्मसिद्धांतवादिता" एवं “सामाजिक बन्धन का अभाव" भी गिनाया है। उसके साथ यह जोड़ने की भी इच्छा होती है कि समष्टि को छोड़कर चलने की भी जो प्रवृत्ति "निवृत्तिवाद” के कारण बढ़ रही है, वह भी एक बड़ी बाधा है। आज का समाजशास्त्रीय युग इस बात की इजाजत नहीं देता कि व्यक्तिवाद अपने को ही एकमेव मानकर चले, अर्थात् अहिंसा व्यक्ति तक ही सीमित रहे या जीव-जन्तु तक ही बन्धी रहे। इसके लिए आवश्यक है कि अनुकम्पा को, करुणा को व्यापक एवं सक्रिय रूप दें, जिसके लिए जो तप व संयम अपेक्षित है, वह तो जेनों का प्राण ही है। साधारण व्यक्ति भी असह्य कष्ट सहज ही सह लेता है। "अहिंसा निउणा दिहा सब भूएम संजमो” का आदर्श प्रस्तुत करनेवाली "जेन संस्कृति के लिए यह असम्भव नहीं कि वह अहिंसा को पुरुषाथी बनाने की राह में औरों के साथ चल सके एवं अहिंसा पर अणुबम से छाये हुए संकट को टालने में स्वयं भी शक्तिभर योग दे सके, जिसके लिए बावश्यक है कि अहिंसा
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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