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श्रमण संस्कृति का हार्द
लक्ष्मीनारायण भारतीय, एम० ए०, साहित्यरत्न
जब किसी संस्कृति का मूल्यमापन किया जाता है, तब दो प्रकार से विचार किया जाता है । एक तो ऐतिहासिक दृष्टि से कि उसका स्थान क्या रहा है और दूसरे भविष्यत् दृष्टि से कि उस स्थानके कारण उसमें कुछ सम्भाबनाएं भी निहित हैं या नहीं, या वह केवल पुरातत्व की वस्तु मात्र बन गयी है।
संस्कृति की व्याख्या जितनी सरल है, उतनी ही कठिन भी 1 परन्तु साधारणतः वह समाज के आन्तरिक विकास की वाहिनी होती है और व्यक्ति एवं समाज के बीच समन्वयकारी सम्बन्ध बढ़ानेवाली तथा प्रकृति को विकृति से बचाकर सुसंस्कृत बनानेवाली होती है । संस्कृति के अलग-अलग प्रकार भी होते हैं, जैसे भारतीय संस्कृति, पूर्वीय संस्कृति, पश्चिमी संस्कृति आदि, यद्यपि ये सब एक मानव संस्कृति के ही अंग होते हैं। उसी तरह किसी धर्म या दर्शन के अनुसार भी संस्कृति के प्रकार बन जाते हैं, यथा जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, इसाई आदि । भारत की संस्कृति ऐसी अनेक प्रवाही रही है कि ये सब धाराएँ या तो उससे निकली होती हैं या उसमें कहीं न कहीं जाकर मिली होती हैं एवं सबसे समन्वित होकर वह आगे ही बढ़ती रही है । इसलिए वह गत्यात्मक भी रही है और केवल पुरातत्व की वस्तु मात्र बनकर नहीं रह सकी है। स्पष्ट है कि उसकी इस पुण्ययात्रा में जैन संस्कृति का भी महत्व - पूर्णं साथ रहा है और यह जैन संस्कृति ऐसे तत्त्वज्ञान से आवेष्टित है, जो युग की आकांक्षा से विपरीत नहीं है ।
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जैन संस्कृति अहिंसाधिष्ठित मानी जाती है और अहिंसा की चर्चा यद्यपि हर युग में होती आयी है, लेकिन इस अणु-युग में यह चर्चा अब वास्तविक आधारों पर ही चल सकती है। भारत के सम्मुख एक चुनौती है कि या तो वह परम्परागत नैतिक और प्रकारान्तर से अहिंसक राह छोड़ दे या अणु-युग का सामना अपनी संस्कृति व उसके विविध अंगों के साथ करे। जो संस्कृतियाँ अहिंसा की बात कहती है, स्पष्ट है कि उनके लिए यह प्रश्न उपस्थित है कि वह इस चुनौती के लिए कितना सामान जुटा सकती है, उसमें ऐसी क्षमता है या नहीं और उसमें युगानुकूल परिवर्तन करने की योग्यता हो सकती है या नहीं। इसके