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________________ [ २५ ] सिद्धान्त वही पानी जब गिरिशिखरों पर बरसता है तो जमकर बर्फ बन जाता है । हिम धवल ऊँचे शिखर दूर से सुहावने दिखाई देते हैं, किन्तु वास्तव में वे पत्थर के बने होते हैं, पानी को भी पत्थर बना देते है। वहाँ उपयोगिता के स्थान पर प्रदर्शन या शोभा की मात्रा अधिक होती है, उनकी तुलना नेताओं के साथ की जा सकती है। जो बाहर से यह घोषणा करते हैं कि हम सिद्धान्त के अनुयायी हैं, किन्तु अन्तर से अपने अहंकार को पोषण करने में लगे रहते हैं। संत सिद्धान्त को जीवन में उतारने के लिए स्वयं पिघलता है और नेता सिद्धान्त के द्वारा अपने अहंकार का पोषण करते हैं। उनका आवरण होता है, अन्तरात्मा नहीं । शिखरों से बहने वाला पानी धारा का रूप ले लेता है और वह उपत्यकाओं तथा मैदानों को लांघती हुई समुद्र में जा मिलती हैं। धारा में जितना वेग होता है उतनी ही वह अधिक शक्तिशाली मानी जाती है। वह मनुष्य तथा अन्य वस्तुओं को बहा ले जाती है, किन्तु उस प्रवाह को प्रगति नहीं कहा जा सकता । प्रगति का अर्थ है अपने पैरों पर खड़े होकर लक्ष्य की ओर बढ़ना । स्वतंत्रता उसका आवश्यक तत्त्व है और प्रवाह में विवशता या पराधीनता रहती है । वह कहीं मानसिक होती है और कहीं शारीरिक । नेता अपने भाषणों तथा प्रदर्शनों द्वारा धारा की सृष्टि करता है जिसे आन्दोलन कहा जाता है । सर्वसाधारण उसमें बहा चला जाता है, उसकी प्रगति विचार शक्ति कुंठित कर दी जाती है । स्वतन्त्र चेतना लुप्त हो जाती है, इसे प्रगति नहीं कहा जा सकता । सन्तों की परम्परा में साधक पथ प्रदर्शक को खोजता है, वह उसकी वाणी से उतनी प्रेरणा नहीं प्राप्त करता जितनी जीवन से। दूसरी ओर नेता अनुयायी को खोजता है, वहाँ भाषण एवं प्रदर्शन का जितना महत्व है, उतना जीवन का नहीं ।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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