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परिवर्तन करने की आवश्यकता है। सत्य की स्फूर्ति होने पर भी उसमें परिवतन करने का साहस नहीं रहता ।
प्रतिष्ठा का व्यामोह अंतरात्मा को दबा देता है । फलस्वरूप वह उसी असत्य का समर्थन करता चला जाता है। अनुयायी नेता को सत्य पर नहीं आने देते। दूसरी ओर अनुयायियों में यदि कोई मतभेद प्रकट करता है तो rant नास्तिक, मिथ्यात्वी, काफिर आदि शब्दों द्वारा भर्त्सना की जाती है। सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। धर्मसंस्था हिंसक तथा व्यभिचारी को सहन कर सकती है किन्तु ऐसे व्यक्ति को सहन नहीं करती ।
मुंडकोपनिषद् में सन्त की उपमा पक्षी और जलचर से दी गई है। आकाश में उन्मुक्त बिहार करने वाला पक्षी लक्ष्य को सामने रखकर सहज प्रेरणा से आगे बढ़ता चला जाता है। किसी पूर्व निर्मित मार्ग का अनुसरण नहीं करता। साथ ही अपने पीछे कोई चिन्ह नहीं छोड़ता । इसीको परमहंसगति कहा जाता हे | जल में विहार करने वाले प्राणी प्रत्येक हलचल के साथ नये मार्ग की रचना करते हैं। वास्तव में देखा जाय तो साधना के क्षेत्र में संघर्ष का ही महत्व है, वह जितना कठोर होगा, व्यक्ति उतना ही ऊँचा उठेगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति संघर्ष से बचने के लिये बने-बनाये मार्ग पर चलता है, आध्यात्मिक क्षेत्र में उसे साधक नहीं कहा जाता, अनुयायी भले ही कहा जाए। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति की अपनी राह होती है और उस पर कांटे बिछे रहते हैं । सन्त उन कांटों से युद्ध करता हुआ बढ़ता चला जाता है, पीछे मुड़कर नहीं देखता, कि उसका कोई अनुसरण कर रहा है या नहीं।
इसके विपरीत नेता सीधी सड़क का प्रलोभन देकर अनुयायियों को इकट्ठा करता रहता है । चलने वालों को धन, सम्पत्ति, विमान तथा अप्सराओं के आकर्षण उपस्थित करता है । इस बात को भूल जाता है कि सड़क भूतल पर ही बनती है। आत्म-विकास का क्षेत्र उससे ऊपर है वहाँ सड़क नहीं बनती।
संत आकाश में विचरण करने वाले बादलों के समान होते हैं। नदी, सरोवर तथा गड्डों में पड़ा भूतल का पानी तपस्या करता है और सूर्य की किरणों का सहारा लेकर ऊपर उठता जाता है, सारी गन्दगी और मैल नीचे छोड़ देता है। बादलों का रूप लेकर आकाश में विचरण करता है और तपे हुए भूतल को देखकर बरसने लगता है । सन्तों का भी यही क्रम है। राजा हो या रंक, ब्राह्मण हों या शुद्र प्रत्येक व्यक्ति तपस्या द्वारा सन्त बन सकता है, वहाँ वंशपरम्परा या अतीत नहीं देखा जाता किन्तु वर्तमान देखा जाता है ।
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