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संत के लिये जीवन का प्रेरक तत्त्व धर्म होता है और नेता के लिये पंथ । धर्म अन्तरात्मा की ज्योति है और पंथ उसका आवरण, जिसका जन्म अहंकार से होता है। धर्म उस प्रकाश स्तम्भ के समान है जो पथ को आलोकित करता रहता है। किंतु पथिक उसका सहारा लेकर स्वयं आगे बढ़ते चले जाते है। वह न किसी को बुलाता है और न अपने आलोकित होने की घोषणा करता है। इसके विपरीत पन्थ निरन्तर घोषणा करता है, इस बात का दावा करता है कि उसके पास जो मृत्पात्र है वह तो प्रकाश देता है और दूसरों के पास जो मृत्पात्र हैं वह वैसा नहीं देते। वस्तुतः देखा जाय तो प्रकाश को घोषणा की आवश्यकता नहीं होती। यह आवश्यकता अंधकार को ही होती है।
संत अनुयायियों की चिन्ता नहीं करता। प्रत्युत साधना में विघ्न सममकर उनसे कतराता है। दूसरी ओर नेता अनुयायिओं का संग्रह करने के लिये आडंबर एवं प्रदर्शन करता है, नये-नये जाल रचता है दूसरे शब्दों में यो कहा जा सकता है-अनुयायी उसके अनुयायी नहीं रहते वह स्वयं उनका अनुयायी बन जाता है।
सन्त ज्ञान का उपासक होता है और नेता शक्ति का। सन्त आवरणों को हटाना चाहता है और नेता अनुशासन के नाम पर नये-नये आवरण खड़े करता जाता है। संत स्वतंत्रता का उपासक होता है और नेता बन्धन का, जिसे वह संगठन, अनुशासन, मर्यादा आदि शब्दों द्वारा प्रगट करता है। दूसरी ओर स्वतन्त्रता को उच्छृखलता कहकर उसकी निन्दा करता है।
नेतृत्व का आधार सर्वत्र वास्तविक गुण नहीं होते। एक व्यक्ति, त्याग, तपस्या, जनसेवा, विद्वत्ता, प्रतिभा आदि वास्तविक गुणों के कारण सम्मान प्राप्त करता है। उसके पीछे एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाता है जो वास्तविक गुण न होने पर भी तरह-तरह से उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है और इस प्रकार प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है। कोई अपने को उसका वंशज बताता है, कोई उसकी गद्दी का अधिकारी, कोई उस सरीखी वेशभूषा बनाकर यह दावा करता है कि मुझ में वे सभी गुण आ गये हैं। कोई दिन रात उसके नाम की रट लगाये रहता है। इस प्रकार विविध प्रदर्शनों द्वारा अनुयायियों की विचार शक्ति को मूर्छित करने का प्रयल किया जाता है। ऐसा भी होता है कि एक व्यकि निजी गुणों के कारण सम्मान प्राप्त करता है और सर्व साधारण को अपना सन्देश सुनाने लगता है। अनुयायिओं की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है। एक दिन उसे भान होता है कि मुझे अपनी धारणाओं में कुछ