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यता, धर्म संस्कृति आदि का चोगा पहिनकर विकराल तांडव कर रहा है। मानव चेतना कुंठित हो रही है। समझ में नहीं आता कि उसे हेय समकें या उपादेय ।
सन्त और नेता
धर्म, राजनीति, समाज, शिक्षा, कला आदि प्रत्येक क्षेत्र में दो प्रकार के व्यक्ति मिलते हैं। पहला प्रकार उनका है जो सच्चे साधक होते हैं । उनका एकमात्र लक्ष्य साधना होता है। उसके पीछे अपने आपको भूल जाते हैं । ऐसे साधकों को 'सन्त' कहा जाता है। उन्हें न अनुयायियों की चिंता रहती है और न इस बात की फिक्र रहती है कि कोई उनकी बात माने । लक्ष्य को प्रज्वलित रखने के लिये अपनी आहुति देते चले जाते हैं। तपस्या उनका स्वभाव बन जाता है। वे उसके द्वारा किसी बाह्य वस्तु को नहीं प्राप्त करना चाहते । यश-कीर्ति की कामना भी नहीं रहती । प्रत्युत उसे साधना में विभ मानते हैं। स्वयं जलकर 'प्रकाश' देना उनका जीवन बन जाता है।
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दूसरा प्रकार उन व्यक्तियों का है जो सन्तों को केन्द्र बना कर दीवारें खड़ी करते हैं। प्रत्येक को यह चिन्ता रहती है कि उसको दीवार दूसरे से ऊँची दिखाई दे । वे ढोल बजाते हैं। प्रत्येक यह चाहता है कि उसका ढ़ोल दूसरे की अपेक्षा अधिक सुनाई दे । इस प्रकार ढोलों में प्रतिस्पर्धा चल पड़ती है । सर्वसाधारण के कान फूटने लगते हैं। बाध्य होकर उसे कानों में उँगली लगाकर चलना पड़ता है। धर्म के प्रति वर्त्तमान मानव की उपेक्षा का मूल कारण यही है। इन ढोल बजाने वालों को नेता कहा जाता है। वे न स्वयं जलना चाहते हैं और न यह चाहते हैं कि कोई दूसरा जलकर प्रकाश फैलाए । उन्मुक्त प्रकाश को मिथ्यात्व नास्तिकता, अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता आदि शब्दों द्वारा गालियाँ देते रहते हैं । प्रज्वलित प्रदीप के स्थान पर वे बुझी हुई बत्ती और मिट्टी के पात्र को अधिक पसन्द करते हैं । इस बात के गीत गाते हैं कि वह किस रूई की बनी हुई है, कहाँ कहाँ जली और कितने दिन जली ? दिया कितना बड़ा है उसके अन्दर कितना तेल आ सकता है और वह मिट्टी, पत्थर, सोना, चाँदी या अन्य किस वस्तु का बना हुआ है। जलते हुए अंगार को छूने का उनमें साहस नहीं होता, उसके स्थान पर बुझे हुये कोयले के गीत गावे रहते हैं। उसकी रक्षा के लिये बड़े-बड़े मकान बनाते हैं, मूर्ति स्थापित करते हैं, पुस्तकें छापते हैं, सभा सम्मेलनों में उसके अतीत के गुण गाकर गौरव का अनुभब करते हैं।