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[ २१] देव के समान गुरु की उपासना भी दोनों प्रकार से हो सकती है। सच्चा , साधक गुरु के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करता है और उसके उपदेशों पर चलने के लिये प्रयत्नशील रहता है। ऐसी स्थिति में गुरु आदर्श का काम करता है। वही जब अहंकार का प्रतीक बन जाता है तो अनुयायी आचरण के स्थान पर प्रदर्शन की ओर झुक जाता है। गुरु के नाम के साथ सच्चे-झूठे विशेषण लगाकर ढोल पीटता है, उनके जीवन के साथ अनहोनी घटनाओं का सम्बन्ध जोड़कर प्रचार करता रहता है। दूसरे गुरुओं में दोष निकालकर अपने गुरु को उत्कृष्ट बताता है। यदि गुरु के विरुद्ध कोई बात सुनता है ती कहने वाले के साथ लड़ने के लिये तैयार हो जाता है। इस प्रकार आत्मशुद्धि के स्थान पर कषायों का पोषण करने लगता है। __यहाँ एक बात और है। देव अतीत की वस्त हैं। वे अपने आप कुछ नहीं करते। उनका नाम लेकर सब कुछ अनुयायी द्वारा किया जाता है। किन्तु गुरु का अस्तित्व वर्तमान काल में होता है। यदि अनुयायी के समान वह भी कषायों से अभिभूत है तो बुद्धि पर गहरा आवरण छा जाता है। ऐसी स्थिति में सत्य का मान होना अत्यंत कठिन है। गुरु अपने अहंकार का पोषण करने के लिये अनुयायी को पथभ्रष्ट करता रहता है और पूजा प्रतिष्ठा आदि के मिथ्या प्रलोभन गुरु को सत्य नहीं प्रकट करने देते। मिथ्या प्रदर्शन धर्म का
आवश्यक तत्त्व बन जाता है और संस्कृति, प्रभावना आदि शब्दों द्वारा सचाई पर परदा डालने का प्रयन किया जाता है।
तीमरा तत्त्व धर्म या पथ है। इसकी चर्चा भी दोनों रूपों होती है। सच्चे साधक अहिंसा, सत्य, संयम आदि को जीवन में उतारते हैं फिर भी सभी के प्रति नम्र रहते हैं। दूसरा रूप विद्याजीवी वर्ग में मिलता है। वे उन बातों की भारी भरकम शब्दों में चर्चा करते हैं। छोटी-छोटी बातों पर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरे को पराजित करके गौरव का अनुभव करते हैं। उनके लिये सिद्धान्त जीवन में उतारने के स्थान पर अहंकार तृप्ति के साधक बन जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन को ऊँचा उठाने वाले तत्त्व भी अहंकार के साथ मिलकर पतन का कारण बन जाते हैं। जब तक अहंकार धन-सम्पत्ति आदि किसी जड़ वस्तु के साथ मिला रहता है तब तक उसकी निन्दा की जाती है। उसका प्रदर्शन करते हुये कुछ मिमक या संकोच भी होता है। किंतु जब वही आईकार आध्यालिकता का चौगा पहिन लेता है तो भाफ्ना कठिन हो जाता है। वर्तमान विश्व का यही अभिशाप है। अहंकार राष्ट्री