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________________ [ २७ 1 लिए यह देखना होगा कि जैन संस्कृति का हार्द क्या है, उसका बंतर क्या बताता है ? जेन-धर्म या जैन-दर्शन विद्वान चितक श्री जेनेन्द्र कुमार "जैन-दर्शन" कहना ही ज्यादा पसंद करते हैं कि जो मोक्ष-साधना है, उसमें तप और संयम का स्थान अनुपमेय है। अहिंसा-चिंतन की अतिसूक्ष्मता तक जेन दर्शन पहुंचा है। अतः जैन संस्कृति, जो श्रमण-संस्कृति का ही महत्वपूर्ण अंग है, अहिंसानिष्ठ कही जाती है। इस जेन संस्कृति को महात्मा भगवानदीन "मानवतावादी" कहा करते थे। मुनि नथमलजी ने इसकी आत्मा, स्थायोभाव "उत्सर्ग" माना है। इसमें तप-लीन होकर साधक अपने को शरीर से इतना अलग कर लेता है, और वह भी साधारण से साधारण व्यक्ति ही होता है, कि उत्सर्ग की भावभूमि पर पहुँचकर वह अपना बलिदान तक दे देता है। यह सारी व्यक्ति-साधना तो होती है और वेयक्तिक मोक्ष ही जैन धर्म का लक्ष्य है, लेकिन इस निवृत्तिपरक धर्म में कुछ ऐसी भी बातें हैं, जो उसे समाज से विच्छिन्न नहीं कर पाती एवं जैन संस्कृति का गुण-प्रधान, तप-प्रधान और संयम-प्रधान होना भी उसे समाज से बांधे रखता है। पं० इन्द्रचंद्र शास्त्री ने "गुणव्रतों को अणुव्रतों के साथ जोड़े रखना" आवश्यक माना है, क्योंकि जैन-दर्शन वही करता है। ये अणुव्रत या गुणवत्त यद्यपि आज विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, लेकिन जिस महावीर स्वामी के धर्म में वे मान्य किये जाते हैं, वे स्वयं अपने में इतने क्रान्तिकारी थे कि कालनुसार वे उन अर्थों को मोड़कर ही रहते, यदि वे आज होते। शब्द सजीव तब बने रहते हैं, जब उनके अर्थ विकसित होते जाते हैं। अन्यथा वे शब्द भी पुरातत्व की वस्तु ही बने रह जाते हैं। महापुरुष अर्थों को विकसित करते रहते है, आगे बढ़ाते है, उनमें प्राण-संचार कराते हैं, ताकि आधार तो कायम रहे, पर स्थिति स्थापकता न जाने पाये। स्वयं "अहिंसा" शब्द ही इस बात का प्रतीक है कि हर युग में उसने नवीन अर्थ पाया है और अपने को व्यापक बनाया है। इसलिए जैन संस्कृति को भी उन अर्थों को ग्रहण करना होगा, जो मलके विपरीत हो पर युगानुसारी हो। ऐसा परिवर्तन स्वयं जैन धर्म में होता रहा है। उदाहरणार्थ, भगवान पार्श्वनाथ ने चार ही व्रत बताये थे, तो भगवान महावीर ने एक और उसमें जोड़ दिया। आज भी कई बातें छूट गई हैं, तो कई जुड़ गई हैं। यह परिवर्तन ही किसी संस्कृति का प्राण होता है एवं जीवितावस्था का प्रतीक होता है। करना इतना ही होता है कि नीर-क्षीर-विवेक न्याय को लागू करते रहें। हम स्वीकार्य अंश लेकर यदि शेषांश न छोड़ें तो उस भार से
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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