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लेते हैं और अंत में प्राण लेकर छोड़ते हैं। इतना ही नहीं, एक का जीवन समाप्त करके वे दूसरे के साथ चिपक जाते हैं।
व्यक्ति के समान संस्कृतियों के भी भूत होते हैं। और वैयक्तिक भूतों की अपेक्षा अधिक भयानक होते हैं। वे सामूहिक चेतना को अवरुद्ध किए रहते हैं। उनसे अभिभूत समाज नए प्रकाश को बुरी दृष्टि से देखता है। उसे मिथ्यात्व, नास्तिकता, समाजद्रोह या देश द्रोह कहकर दूर रखना चाहता है । इस पर भी जब वह नहीं रुकता तो अपनी आंखें बन्द कर लेता है । सन्तान तथा अनुयायियों को भी आंखें बन्द रखने की कड़ी आशा देता है । खोलने पर कड़ा दंड दिया जाता है। धर्म, समाज, राजनीति, विद्या आदि संस्कृति का प्रत्येक क्षेत्र इस प्रकार की आशाओं और दंडों से भरा है। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि प्रत्येक संस्था का जीवन उन क्रांतिकारियों का इतिहास है जो इन भूतों से नहीं डरे और साहस करके सामने खड़े हो गए। उन्होंने अन्धकार का पर्दा फाड़कर प्रकाश का स्वागत किया । नेता के रूप में वे स्वयं प्रकाश बन गए। किन्तु धीरे-धीरे उनके भी चारों और अन्धकार घनीभूत हो गया। अनुयायी वर्ग अन्धकार को भी उनके व्यक्तित्व का आवश्यक तत्व मानता चला गया। एक दिन प्रकाश बुक गया और अन्धकार ही अन्धकार रह गया । प्रकाश के नाम से उम अन्धकार की पूजा होने लगी ।
धर्म के क्षेत्र में वे भूत वेशभूषा, क्रियाकांड, शुष्क अनुष्ठान, अन्धविश्वास आदि के रूप में बुद्धि को घेरे रहते हैं। एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाता है जो अतीन्द्रिय तत्वों की दुहाई देकर परम्परा की रक्षा के लिए कहता है। शास्त्रो के पाठ को तोड़ मरोड़ कर सच्चे झूठे अर्थ करता रहता है और पद-पद पर उनकी दुहाई देता है। जो उनकी बात नहीं मानते, उन्हें बदनाम करता है । प्रत्येक धर्म में परम्परा को न मानने वालों के लिए गालियां बनी हुई हैं। मिथ्यात्व, नास्तिक, काफिर, एथीस्ट आदि शब्द इसी प्रकार के हैं । इन मूतों की रक्षा के प्रयत्न में धर्म संगठन मिथ्या प्रदर्शन तथा दंभ का घर बन जाता है। खान-पान, छूआछूत, तिलक, वेशभूषा तथा थोथी क्रियाएं चर्चा का मुख्य विषय बन जाती हैं। उनके लिए अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सदाचार के मुख्य तत्वों की उपेक्षा होने लगती है ।
पुरोहित वर्ग तथा साधु-संस्था का इतिहास इन तथ्यों का साक्षी है । ब्राह्मण वर्ग आत्मचिंतन को छोड़कर थोथे क्रियाकाण्ड को महत्व देने लगा । यज्ञ में वेदी कितनी बड़ी होनी चाहिए ! उसमें लगाई जानेवाली प्रत्येक ईंट